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जैन दर्शन
अपायापगम ( जीवात्मा को अनेक प्रकारके दुःखोंका पात्र बनानेवाले राग द्वेप और मोहका दूर होना ) नामक अतिशय (प्रभाव विशेष) प्रगटतया देख पड़ता है और इससे वीतरागत्व भी जिनेन्द्रका ही सिद्ध होता है।
केवल ज्ञान और केवल दर्शनत्राला.-केवल याने अन्य किसी अपेक्षाको न रखनेवाला, अथवा संपूर्ण ज्ञेय पदार्थोको एक समय मात्रमें जाननेवाले और दिखानेवाले शान दर्शन, इस प्रकारके केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन द्वारा जिनेन्द्र देव हथेली पर रक्खे हुये आमलक फलके समान द्रव्य पर्यायरूप सारे संसारकी स्थितिको जानते और देखते हैं । इस विशेपणमें जो ज्ञान पद प्रथम रक्खा गया है उसका कारण यह है कि छमस्थ मनुष्यको (अपूर्ण ज्ञानधारी या अप्राप्त केवल ज्ञान मनुष्यको) प्रथम दर्शन और पीछे ज्ञान पैदा होता है, परन्तु केवल ज्ञानीको प्रथम ज्ञान और फिर दर्शन होता है । इसी कारण यहाँ पर प्रथम ज्ञान
और फिर दर्शन पद नियोजित किया गया है । संसारमें वस्तुमात्रके दो स्वरूप होते हैं, एक तो विलकुल सामान्य और दूसरा विशेष । जिल बोध वस्तुका सामान्य ज्ञान गौणतया देख पड़े
और विशेष समझ मुख्य तौरसे देख पड़े उसे ज्ञान कहते हैं और जिस वोध वस्तुकी विशेष समझ गौणतया देख पड़ती हो
और सामान्य समझ मुख्यतया देख पड़ती हो उसे कहते हैं दर्शन ।
इस दूसरे विशेषण द्वारा जिनेन्द्र देवका ज्ञानातिशय-ज्ञानका प्रभाव प्रगट किया गया है।
देव और दानवोंके इंद्रोंसे पूजित-जैन संप्रदायमें, सुर, या देव, शब्दसे ही सुर या असुर अथवा देव और दानव इन दोनोंका • चोध हो सकता है तथापि लोकरूढ़ीका अनुसरण करके इस विशेषणमें इन दोनों शब्दोंका जुदा जुदा निर्देश किया गया है । क्योंकि देव और दानवको लोग जुदा जुदा गिनते हैं । जिनेन्द्रदेव देव और दानवों तथा उनके अधिपति-इन्द्रोंसे पूजित होनेके