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'जैन दर्शन
लिकी अपेक्षा बड़ी होती है, अर्थात् उसमें एक ही समय परस्पर विरुद्ध दो धर्म रहे हुये प्रत्यक्ष रूपसे मालूम होते हैं; तथापि उसमें संकर या व्यतिकरकी गंध तक भी नहीं आती। वैसे ही यहाँपर भी वे दोष किस तरह आ सकते हैं ? तथा पहले जो यह कहा गया था. कि अनेकान्तवाद के अनुसार पानी झिरुपमें हो जायगा और अभि पानीरूपमें हो जायेगा और ऐसा होनेसे व्यवहारका नाश होगा, इस युक्तिको भी यहाँ पर श्रवकाश नहीं मिल सकता | हम (जैन) तो यों कहते हैं कि पानी पानीरुपमें सत् है और वह दूसरे रुपमें असत् है । इसमें ऐसी कौनसी बात है कि जिससे वस्तुका वस्तुत्व "बदल जाय या नष्ट हो जाय ? इस प्रकार माननेसे प्रत्युत वस्तुस्वरुप अधिक निश्चित होता है और हम कहते हैं-उसी प्रकार सव लोक मानते भी हैं। क्या कोई भी प्रामाणिक मनुष्य यह मानता है कि पानी दूसरे रूपमें भी रहता है ? तथा भूतकाल और भविष्यकाल की अपेक्षा पानीके परमाणु श्रग्निरूप में परिणत हुये हों या परिणत होनेवाले हों तो वे भी अग्निरूप क्यों न गिने जायँ ? 'तथा गरम पानी में कुछ अग्निका अंश है ऐसा माना भी जाता है । याने पानी भी किसी अपेक्षासे अग्निरुप हो सकता है, यह चात दूपण रहित है तथा आपने [एकांत मार्गवालने] जो प्रमाण 'वाध और असंभव ऐसे दो दोप सामने रक्खे थे वे भी निर्मूल ही "हैं, क्योंकि जहाँपर वस्तुका अनन्त धर्मत्व प्रमाणसे सिद्ध हो चुका है वहाँपर प्रमाणवाधका प्रवेशं ही कैसे हो सकता है ? और जब इस प्रकारका वस्तुस्वरूप प्रमाणोंसे निश्चित हो चुका . फिर असंभव भी नजदीक नहीं फटक सकता । जो वस्तु नजरसे देखी हुई हो, उसमें कदापि श्रसंभव दोपको स्थान नहीं मिल सकता, यदि उस पर भी असंभव आक्रमण कर सकता हो तो फिर वह किसी जगह अपनी गति न कर सकेगा ? अतः वास्तविक रीतिले विचार करनेपर अनेकान्त मार्गमें एक भी दोषको स्थान नहीं मिल सकता । तथा जो अनेकान्त मार्गको दूषित करने के लिये यह कहा जाता है कि " इस मार्ग में प्रमाण भी प्रमाण होगा, सर्वज्ञ भी असर्वज्ञ होगा और सिद्ध भी असिद्ध होगा " इत्यादि