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प्रमाणवाद
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स्वभावको भी नहीं जान सकता । इस प्रकार विचार करनेसे - यह मालूम हो सकता है, कि एक घटका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उससे भिन्न दूसरे अनेक पदार्थों और उनके स्वभावों को जानने की खाल श्रावश्यकता है अतएव यह निश्चित करना उचित है कि जो पटके गुण या धर्म हैं वे भी किसी अपेक्षासे घटके हो सकते हैं और हैं। इस विषय में भाष्यकारने यह फर्माया है कि - " जिसके जानने से जिसका ज्ञान न हो सके और जिसके जानने से जिसका ज्ञान हो सके उन दोनोंके वीच निश्चित रूपसे किसी प्रकारका सम्वन्ध होना चाहिये । जैसे घड़ा और उसके रूप वगैरह गुणोंके बीच धर्मधर्मी भाव नामक सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध इन दोनोंके बीचमें भी क्यों न हो सके ?" अतः श्रव यह बात निश्चित होती है कि जो पट वगैहरके गुण या धर्म हैं वे किसी अपेक्षाले घटके साथ भी सम्बन्ध रखते हैं । जो परपर्याय हैं वे स्वपर्यायोंकी अपेक्षा अनन्त गुण अधिक हैं और वे दोनों मिलकर उतने ही हैं कि जितने सर्व द्रव्योंके पर्याय हैं। इस विषयकी महर्षियोंने भी आचा *रांग सूत्रमें पुष्टि की है। उसमें लिखा है कि " जो एकको जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एकको भी जानता है " अर्थात् जो मनुष्य मात्र एक ही पदार्थको उसके समस्त स्वपरपर्यायों सहित, याने उसकी श्रतीतदशा, वर्तमान दशा और भविष्यकी दशा इन सबको जानता हो वही मनुष्य सब जान सकता है और जो मनुष्य सवको याने पदार्थकी अतीत दशा वगैरहको जानता हो वही एक पदार्थको यथार्थ गीतिसे जान सकता है । इसी विषयको अन्यत्र भी इस प्रकार वर्णित किया है - " जिसने सर्व प्रकारसे एक पदार्थको देखा है उसने सर्व प्रकारसे सर्व पदार्थोंको देखा है और जिसने सर्व प्रकारसे सर्व पदार्थोंको देखा है उसने एक पदार्थको भी सर्व रीतिले देखा
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है । ऊपर कथन किया गया था कि प्रमाण द्वारा जिस जिस
पदार्थका ज्ञान होता है वह प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मवाला है,
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देखिये -- आचारांग सूत्रका अ. ३, उ, ४ ( श्री. १७१ स. )