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जैन दर्शन
मुळ-ममत्व वुद्धिं नहीं रखते ये उनके पाँच याम या महावत हैं।
वे क्रोध, मान, माया-कपट वृत्ति और लोभका परित्याग करनेमें हमेशह दत्तचित्त रहते हैं । इन्द्रियोंको दमन करते हैं। पासमें कुछ भी द्रव्य नहीं रखते । भ्रमरके समान भ्रमण कर घरोंमेले दोष रहित आहार माँग लाते हैं और (जिस स्थानपर उहरे हों वहाँ पर भोजन करते हैं) शुद्ध संयम पल सके सिर्फ इसी एक उच्च आशयसे वे आवश्यकतानुसार आहार ग्रहण करते हैं। तथा इसी हेतुसे वस्त्र और पात्र ग्रहण करते हैं।
जब उन्हें कोई मनुष्य नमस्कार करता है तब वे आशीर्वादके रूपमें 'धर्मलाभ' शब्द वोलते हैं । इस प्रकारका श्वेताम्बर मुनियोका वेष और आचार है।
दिगम्बर सम्प्रदायके चार प्रकार हैं। काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुरसंघ तथा गोप्यसंघ । ये चारों ही दिगम्बर याने नन्न रहते हैं । दिगम्बर मुनि खाने पीनेके लिये पात्र भी नहीं रखते। अर्थात् करपात्रपन ही उनका मुख्य चिन्ह है । इन चारोंमें जो भिन्नत्व है सो इस प्रकार है-काष्टासंघमें रजोहरणके बदले चमरी गायके वालोंकी पीबी रख्खी जाती है। मूल और गोप्यसंघमें मयूर पुच्छकी पीछी रखते हैं और माथुरसंघमें किसी प्रकारको पीछी नहीं रक्खी जाती। यह उनके अनेक वेष सम्बन्धी हकीकत है । वे चारों ही भिक्षा करते समय तथा आहार करते समय बत्तीस अन्तरायों और चौदह मलोंका परित्याग करते हैं। इनमेसे प्रथमके तीन नमस्कार करने पर आशीर्वादके रूपमें धर्मवृद्धि, शब्द उच्चारण करते हैं और गोप्यसंघवाले मुनि श्वेताम्बर मुनिके समान धर्मलाभ, कहते हैं। प्रथमके तीनों ही स्त्री शरीर धारी आत्माओंकी मुक्ति नहीं मानते, केवल ज्ञानधारी महर्पिोको पाहारकी आवश्यकता नहीं स्वीकारते और वस्त्रधारी मुनिकी मुक्तिका निषेध करते हैं । गोप्यसंघवाला समुदाय स्त्रीशरीरधारक . मात्माकी मुक्ति स्वीकारता है । इस गोप्यसंघका दूसरा नाम यापनीय, भी है। इस फेरफारके सिवा दिगम्बरोंका आचार, गुरुत्व और देवत्व :