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जैन दर्शन
पसे सत् कहलाता है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवा स्तिकाय, अाकाशास्तिकाय और काल इन सबके रूपसे असत् कहना चाहिये । पौगलिकत्व उस घटका निजी पर्यायधर्म स्वभाव है और वह पर्यायधर्मास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय आदि अनन्त द्रव्यांसे सर्वथा व्यावृत्त हैं, अर्थात् घटका स्वपर्याय एक है और पर पर्याय अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि घट अपने पौगलिकत्वके रुप से सत् है और इसके अलावा दुसरे अनन्त द्रव्योंके स्पसे असत् है। तथा घट पृथ्वीसे उत्पन्न होनेके कारण पृथ्वीरुपसे सत् है
और पानी, तेज वायु आदिके रुपसे असत् है । यहाँपर भी घटका स्वपर्याय एक है और परपर्याय अनन्त हैं। इसी प्रकार सर्वत्र स्वपर्याय और परपर्यायके सम्बन्धमें ससझलेना चाहिये । यद्यपि घड़ा पृथ्वीके परमाणुसे बना हुआ ह तथापि वह धातुका है इस लिये धातु रुपले सत् और महो वगैरहके रुपसे असत् और धातुमें भी सुवर्णका बना हुआ है अतः सुवर्णरूपले सत् और चान्दी, तांवा एवं सीसा वगैरहके रूपसे असत् है । सुवर्णमें भी वह घड़ा घटित सुवर्णका बना हुआ है अतः घड़े हुये सुवर्ण रूपसे सत् और विनघड़े सुवर्णके रूपसे असत् है। घटित सुव
में भी वह घड़ा देवदत्तसे घड़े हुए सुवर्णका बना हुआ है । अतः उस रूपसे सत् और यशदत्त वगैरह देवदत्तके सिवाय कारीगरोसे घड़े हुये सुवर्णरूपसे असत् है । वह घड़ा बनाया हुआ है परन्तु उसका आकार-मुख भीड़ाऔर वीचका.भाग चौड़ा है अतः वह अपने उस प्रकारके रूपसे सत् और अन्य सुकट वगैरहके श्राकार रूपसे असत् है । ऐसा होनेपर उसका वह गोल आकार है अतः वह अपने उस गोल आकाररूपसे सत् और दूसरे आकाररूपसे असत् है । गोल आकारों में भी जो उस घटका ही गोल आकार है उस स्वरूपसे ही वह सत् और अन्य गोल आकाररुपसे असत् है। उसका निजी गोल.आकार भी उसके निजके ही परमाणुओसे बना हुआ है अतः उस रूपसे वह सत् और अन्य परमाणुओकी अपेक्षासें असत् है। इसी श्राकारमें अन्य भी जिन जिन धमाके द्वारा घटको घटाया जाय वे उसका निजी पर्याय हैं