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जैन दर्शन
श्रुतज्ञान अनेक प्रकारका है और अस्पष्ट है" । सिद्धान्तको जाननेवाले (सैद्धान्तिक) लोग यह कहते हैं कि " स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिवोध ये चारों शब्द अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणास्वरुप मतिज्ञानके सूचक हैं"। यद्यपि स्मृति, संज्ञा और चिन्ता वगैरहका एक ही विषय है तथापि ये लव विवादरहितं होनेसे अनुमानके समान प्रमाणरूप हैं। जिस प्रकार अनुमानका विषय और उससे पहले ज्ञानका याने व्याप्तिको प्राप्त करनेवाले, प्रमाणका विषय ये दोनों एक होनेपर भी अनुमानकों प्रमाणकी कोटिमें रख्खा जाता है उसी प्रकार स्मृति वगैरहके लिये भी . समझलेना चाहिये। यदि ऐसा न समझा जाय तो अनुमानको भी प्रमाणरूप कैसे माना जाय ? विवादरहित और व्यवहारमें उपयोगी होते हुए स्मृति आदिमें जबतक शब्द निमित्तरूप न वने तबतक वे सब मतिरूप हैं और उनमें निमित्तरुप शब्दका उपयोग हुये बाद वे सब श्रुतरुप हैं । इस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विभाग है। यद्यपि स्मरण, तर्क और अनुमानरुप, स्मृति एवं संज्ञा वगैरह एक तरहके. परोक्षज्ञानके हैं तथापि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान यहाँपर भिन्न २ स्वरूप समझानेके लिये प्रत्यक्ष ज्ञानके वर्णनमें भी उन्हें कथन किया है।
अव परोक्षप्रमाणका स्वरूप और भेद इसप्रकार बतलाते हैंअस्पष्ट परन्तु विवादरहित जो ज्ञान है उसका नाम परोक्ष है। उसके पांच प्रकार हैं- स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और
आगल । स्मरणका स्वरूप इसप्रकार है, पूर्व संस्कारोंकी जागृतिसे होनेवाला और पहले अनुभव की हुई पातको जनानेवाला जो ज्ञान है उसका नामस्मरण है। उस स्मरण ज्ञानको जनानेकी राति इस प्रकार है-वह तीर्थकरका विम्ब है' (जो पहले देखा . हुआ है ) । प्रत्यभिज्ञानका स्वरूप इस तरह है- वर्तमानमें होता हुआ अनुभव और पूर्वमें मालूम कराया हुआ स्मरण इन दोनोंसे पैदा होनेवाला (परोक्ष तथा प्रत्यक्षज्ञानकी ) संकलना करनेवाले शानका नाम प्रत्यभिज्ञान है। उस ज्ञानको शब्दमें समझानेकी रीति इस तरह है- 'यह वही है। उसके समान है:':