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________________ .१६० जैन दर्शन ही हैं और इन दोनोंमें एक समान ही सत्यता रही हुई है। कितने एक मनुष्य इन दो प्रमाणोंके उपरान्त अधिक प्रमाण भी मानते हैं । उनके जो प्रमाण यथार्थ प्रमाणरुप हो उन्हें विचार पूर्वक प्रत्यक्ष और परोक्षमें समा देना चाहिये । और जो प्रमाण तथाप्रकारके यथार्य प्रमाणरूप न हों और , मीमांसक मतवालोंके माने हुये अभाव प्रमाण जैसे असद्रूप हो उनकी श्रोर दुर्लक्ष करना चाहिये । कितने एक मनुष्य प्रमाणोंकी संख्या कथन करते हुये उनकी गिनती इस प्रकार करते हैं१ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ भागम,४ उपमान,५ अर्थापत्ति, अभाव, ७ सम्भव, ८ऐतिह, ९ प्रतिभ, १० युक्ति, और ११ अनुपलब्धि। इन ग्यारह प्रमाणोंमें आये हुए अनुमान और आगम ये दो प्रमाण एक प्रकारके परोक्ष प्रमाण ही हैं । उपमान प्रमाणको नैयायिक मानते हैं और उसका स्वरूप इस प्रकार है-एक सेठने अपने नौकरको कहा कि रामू! 'गवयको ले श्रा' अव विचारा वह रामू गवय शब्दके अर्थको तो जानता ही नहीं, तथापि सेठकी प्राज्ञासे उसे लेनके लिये घरले बाहर निकला और रास्ते चलते ही उसने किसी गड़रियेसे पूछा कि भाई गवय कैसा होता है ? गड़रियेने उत्तर दिया कि जैसी गाय होती है वैसा ही गवय होता है, इस प्रकार गड़रियके कहनेसे अव वह रामू गवयक अर्थको समझा और जंगलमे गायके समान फिरते हुए किसीप्राणीको गवय समझकर सेठके पास ले आया। इस प्रकारके शानका नाम उपमान प्रमाण है, अर्थात् जो ज्ञान फक्त किसीने वतलाई हुई समानता द्वारा ही होता हो उसका नाम उपमान प्रमाण है। उस उपमान प्रमाणमे दूलरका कहा हुआ याद रखना पड़ता है और उसके द्वारा ही वस्तुका ज्ञान हो सकता है । उपमान प्रमाणका . इस प्रकारका स्वरूप नैयायिक मानते हैं। मीमांसक मतवाले उसका स्वरूप दूसरा ही कथन करते हैं और वह इस तरह है जिस मनुष्यने गवयको नहीं देखा और जैसी गाय होती है वैसा ही गवय होता है ऐसा वाक्य भी जिसने कभी. .नहीं सुना वह मनुष्य एक दफा जंगल में गया और वहाँपर
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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