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जैन दर्शन वन्धच्छेद होनेसे गति होती है वैसे ही कर्मवन्धनका सर्वथा. उच्छेद होनेसे सिद्ध जीव भी उर्ध्वगति करता है।४ ।
ऊर्ध्वगौरवः-श्री जिनेश्वरोंने कहा है कि-जीवोंका मूल धर्म . 'उर्चगौरव है याने ऊंचेजानापन है और पुद्गलोंका मूल धर्म अधो- . गौरव याने नीचे जाना है। ५
जिस प्रकार पत्थरका टुकड़ा अपने स्वभावसे ही नीचे गति. करता है, वैसे ही वायु का गति करता है, अग्नि और पानीकी तरंगे ऊंच गति करते हैं उसी प्रकार आत्माकी जो यह उर्ध्वगति होती है वह स्वाभाविक है। ६
जीवोंका नरकादिकी तरफ गमन करना-नीचे जाना, वक्र . जाना, मनुष्यादिमें जाना, और ऊंचे याने स्वर्गादिकी तरफ जाना यह सब कुछ कर्मजन्य है और जो लोकके सर्वथा ऊपरके अन्तिम किनारेकी ओर जाना है यह उसका (कर्म रहित जीवका) स्वाभाविक धर्म है। ७ . कदाचित यह प्रश्न किया जाय कि जीव लोककी सर्वथा ऊपरी किनारेको छोड़कर आगे भी क्यों नहीं जाता? इस प्रश्नका उत्तर 'यह है कि वहाँपर आगे गतिका निमित्त धर्मास्तिकाय नहीं और धर्मास्तिकायके विना गति हो ही नहीं सकती। ८ . .
तथापि यदि मोक्ष जाते हुये प्रात्माओंको सर्वथा शरीर और इन्द्रिये आदि प्राणरहीत माना जाय तो उनका जीवत्व ही उड़ जाता है और अजीवका मोक्ष न होनेसे जीवका मोक्षभी कैसे सम्भावित हो सकता है ? अतः मोक्षकी दशा-भी जीवका जीवत्व कायम रखनेके लिये जीवको शरीरवाला और इन्द्रियवाला मानना चाहिये । इसका उत्तर इस प्रकार है-प्राण दो प्रकारके हैं, एक द्रव्यप्राण और दूसरे भावप्राण । यद्यपि मोक्षसे सावप्राण नहीं होते. तथापि भावप्राणोंकी विद्यमानता होती है। उन भावप्राणोंको धारण करता हुश्रा जीव वहाँ भी जिया करता है, अतः द्रव्यप्राणोंका वियोग होनेपर भी उसके जीवतत्वमें किसी प्रकारकी भी त्रुटि नहीं होती । वे भावप्रमाण इस तरह हैं- क्षायिकसम्यत्क्व, क्षायिकज्ञान, क्षायिकवर्यि,