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करना, प्रूफ सुधारना आदि सभी कार्यों में आप स्वयं दिलचस्पी लेते हैं और इसीले ग्रन्थ अच्छे निकलते हैं । अस्तु,
अब मैं पाठकोका ग्रन्थकर्ताकी ओर ध्यान खींचता हूँ। पड्-- दर्शन समुच्चय' ग्रन्थ श्रीहरिभद्रसूरिजीका लिखा हुवा है यह बात उनके पीछे होनेवाले ग्रन्थकारोंके उल्लेख सिवाय खास ग्रन्थ परसे कुछ प्रमाणित नहीं होती । हरिभद्रनामके आचार्य भी चार हुए हैं। पाटणके सिद्धराजके कालमें जो दो हरिभद्रसूरि हुए हैं उनमेंसे एक श्री उमास्यातिकृत 'प्रशमरति' का विवरण करनेवाले हैं और दूसरे 'कलिकाल गौतम ' हरिभद्रसूरि । सिद्धराजका काल ११८५ सम्वत् है । तीसरे हरिभद्रसूरि १३९३ सम्वत् में हुए. हैं। उन्होने जयवल्लभलत 'वजालय' की छाया लिखी है। हमारे अन्यकर्ता हरिभद्रसूरि इन तीनोले पुराने जमानेके हैं। इस बारे में गुजरात पुरातत्वमंदिरके प्राचार्य मुनिश्री जिनविजयजी महाराज. लिखते हैं " यह अन्तिम निर्णय हो जाता है कि महान तत्वज्ञ प्राचार्य हरिभद्रसूरि और 'कुवलयमाला' कथाके कर्ता उद्योतन.. सूरि उर्फ दाक्षिण्यचिन्ह दोनों (कुछ समय तक तो अवश्य ही) समकालीन थे। इतनी विशाल प्रन्यराशि लिखनेवाले महापुरुपकी कमसे कम ६०-७० वर्ष जितनी आयु तो अवश्य होगी। इस कारणले लगभग इस्वीकी आठवीं शतान्दिके प्रथम दशकमें हरिभद्रका जन्म और अष्टम दशकमें मृत्यु मान लिया जाय तो. वह कोई असंगत नहीं मालूम देता । इसलिये हम इ. सन् ७०० से. ७७० (वि. सं. ७५७ से ८२७ ) तक हरिद्रसूरिका सत्तासमय स्थिर करते हैं।" ( देखो 'जैनसाहित्यसंशोधक' का प्रथम अङ्क 'हरिभद्रसूरिका समयनिर्णय.') हरिभद्रसूरि महाज्ञानी ब्राम्हण थे। याकिनी महत्तरा नामकी एक जैन साध्वी उपाश्रयमें कोई श्लोक पढ़ती थी जिसका अर्थ हरिभद्रजीको बिलकुल मालूम नहीं पड़ा । साध्वीके कहने मुजव वे जिनदत्तजी महाराजके पास. गये और अर्थ सुनकर सन्तुष्ट हुए। उन्ही प्राचार्यके पास उन्होंने जैनदीक्षा अंगीकार की। हरिभद्रसूरिने चौदहसौ चवालीस ग्रन्थ लिखे हैं ऐसा उल्लेख उनके वाद हुए ग्रन्थकारोंने अपने ग्रन्थों में