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निर्जरा और मोक्ष.
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सकता है यह बात सबको विदित ही है, अतः जो अनादिकालान हो उसका नाश न हो सके यह नियम सत्य नहीं। अब यदि यह प्रश्न किया जाय कि रागादि गुण श्रात्मासे भिन्न हैं ? या अभिन्न हैं ? यदि इन्हें आत्माले सर्वथा भिन्न ही माना जाय तो जैसे मोक्षको प्राप्त हुये प्रात्मा रागादिसे भिन्न हैं याने वीतराग हैं वैसे ही प्रत्येक आत्मा रागादिसे भिन्न होनेके कारण वीतराग होना चाहिये और जो उन सबको आत्मासे भिन्न ही माना जाय तो फिर जिस प्रकार घटका नाश होनेपर साथ ही उसके गुणोंका भी नाश हो जाता है वैसे ही रागादिका नाश होनेपर आत्माका भी नाश होना चाहिये। क्योंकि जो दो वस्तु परस्पर सर्वथा अभेद धारण करती हो उनमेंसे एकका नाश होनेपर दूसरीका भी नाश होना चाहिये । श्रतः रागादि आत्माले सर्वथा भिन्न या अभिन्न न मानकर किसी अपेक्षासे भिन्न और किसी अपेक्षाले अभिन्न इस प्रकार भिन्न भिन्न मानना चाहिये। इस प्रकार माननेसे किसी भी प्रकारका दूषण नहीं पाता। यदि यह प्रश्न किया जाय कि श्रात्माको शरीर और कर्मादिका सर्वथा वियोग होनेपर लोकके अन्ततक ऊँचे जानेका क्या कारण ? इस प्रश्नका उत्तर ऐसा समझना चाहिये-जैसे कुम्भकार चाकको एक दफा गति देता है और फिर वह सिर्फ उस गतिके वेगसे ही फिरा करता है, एक वक्त हिन्डोला हिलानेके बाद उस वेगके कारण वह आपसे श्राप ही हिला करता है, एक दफा प्रारम्भमें ही तीरको गति देनेसे वह फिर बहुत दूरतक पहुँच जाता है, इसी प्रकार काँका नाश हुये बाद उनके वेगके कारण आत्मा भी लोकके अन्ततक पहुँच जाता है।
जैसे एक तूंवेपर मट्टीका लेप लगाया हो और वह फिर पानी में डालते ही डूब जाता है, इसके बाद ज्यों ज्यों पानीके सहवाससे उसके ऊपर लगे हुये मट्टीके लेप धुलते जाते हैं-उखड़ते पाते हैं त्यो त्यो वह तूंबा ऊपर आता है और तमाम मिट्टी सर्वथा धुल जानेपर वह तूंबा सर्वथा पानी के ऊपर प्राकर तैरता है, वैसे ही आत्मा भी ज्यो ज्यों कर्मका भार कम करता जाता है