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पुण्य
११५ रूप है ही इसमें किसीका भी मतभेद नहीं, क्योंकि वह आताप अग्निके समान हमें संतप्त करता है और गरम लगता है। चन्द्र और सूर्य आदिका प्रकाश भी पुद्गलरुप है, क्योंकि वह प्रकाश ठंडे पानीके समान हमें आनन्द प्रदान करता है और अग्निके समान गरम भी रहता है । तथा जिस प्रकार प्रकाश करनेवाले दीपकका प्रकाश पुद्गलरूप होता है वले ही प्रकाश करनेवाले चन्द्र और सूर्यका प्रकाश भी पुद्गलरूप है। यह राग वगैरह मणि रत्लोका प्रकार अनुषणाशीत याने ऊष्णा भी नहीं और शीत भी नहीं ऐसा है। इस प्रकार अन्धकार छाया और प्रकाश ये सब ही पुदलरुप सावित हो चुके हैं और साथ ही जैन दर्शनमें साने हुए अजीव तत्वकी व्याख्या भी यहाँ ही समाप्त हो जाती है।
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पुण्य कर्मके शुभ पुद्गलोका नाम पुण्य है। जिस कर्मके पुद्गल तीर्थकरत्व और स्वर्ग आदिके प्राप्त करानेमें निमित्तरुप होते हैं उन पुगलोंको शुभकर्मके पुद्गल कहते हैं। ये कर्मके पुद्गल जीवके साथ लित होते हैं और उसका दूसरा नाम कर्मकी वर्गणा (कर्म वर्गणा) भी है।
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पाप और आश्रय पुण्यसे विपरीत प्रकारके पुद्गलोको पाप पुद्गल कहते हैं। मिथ्यात्व, विषयासक्ति, प्रमाद और कषाय वगैरह पाप उन्धके कारणं हैं
और इन्ही बन्धके कारणोंको जैनशास्त्र में श्राश्रवका नाम दिया गया है। पापके पुद्गलोको अशुभकर्मके पुद्रत्न कहते हैं क्योंकि वे पुद्गल वगैरह अशुभ फलके कारण हैं ये पाप पुद्गल भी जविके साथ ही लिप्त रहते हैं। पुण्य और पापको विद्यमानता मानने में जो बहुतसे मतभेद हैं उन सवका यहॉपर निराकरण होनेसे वे सब बन्ध