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जीववाद
कर दी गई है कि शब्द भी पुंगलका ही गुण है, इस वातको विशेषतः समझनेके लिये निम्न युक्तियां काफी होंगी-शब्द
और आकाशमें अनेक प्रकारके विरोध होनेसे उन दोनोंका किसी प्रकार गुण-गुणी भाव संघटित नहीं हो सकता । शब्द, छाती, कंठ, मस्तक, जाभका सून, दाँत, नासिका, होट और तालु इत्यादि स्थानोंसे पैदा होता है और पैदा होते वक्त ढोल तथा झालर वगैरहको कंपित करता है अतः वह मूर्तिमान याने भाकारवाला है और आकाश तो आकार रहित है एवं नित्य है।
शब्द मनुष्यके कानको बहिरा कर सकता है परन्तु श्राकाश तो ऐसा नहीं कर सकता । तथा फेंके बाद कहीं टकराये हुए पत्यरके समान पीछे फिरता है, सूर्यतापके समान जहाँ तहाँ जासकता है, शब्द अगरकी धूपके समान विस्तृत हो सकता है याने फैल सकता है, शब्द, तृण और पत्तोंके समान वायुद्वारा लेजाया जा सकता है,। शब्द दीपक प्रकाशके समान सव दिशाओमें फैल सकता है, । शब्द, दूसरे किसी बड़े शब्दकी विद्यमानतामें सूर्यकी विद्यमानतामें तारके समान आच्छादित हो सकता है, और वह किसी छोटे (वारीक) शब्दको सूर्य जैसे तारोको ढक देता है वैसे ही ढक दे सकता है। इन समस्त कारणोंसे शब्द शाकाशका गुण नहीं हो सकता। आकाश अरुपी होनेसे उसका गुण भी अरुपी ही होना चाहिये । इस प्रकार यदि शब्द अरुपी हो तो ऊपर कथन किये मुजच जो जो स्थितिय शब्दके सम्बन्धमें घतलाई हैं वे किसी भी प्रकार घट नहीं सकतीं और ये तमाम परिस्थितिये सवको प्रत्यक्षरूप होनेसे असत्य भी नहीं मानी जा सकी । इस तरह शब्द पुद्गलकाही गुण है इसमें जरा भी संदेह नहीं। अव यदि कोई यो कहे कि शंखमें और शंखके फूटनेवाद उसके टुकड़ों में हम जिस प्रकार रूपको देख सकते हैं वैसे ही हम शब्दमें भी रूपको क्यों नहीं देख सकते? इस प्रश्नका उत्तर इतना ही काफी होगा कि शब्दमें रहा हुआ रुप अति वारीक है अतः हम उसे खोसे देख नहीं सकते। जिस प्रकार दीपकके बुझ जाने बाद उसकी शीखाके रूपको और पुद्गलरुप गन्धके परमाणुके