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जीववाद
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भांखे खुली होनेपर भी पासमेसे क्या चला जा रहा है सो मालूम नहीं होता । कान खुले होनेपर भी समीपका गायन सुननेमें नहीं माता, यदि इसका कुछ कारण हो तो यह उस शक्तिकी असावधानता ही है और वह जो शक्ति है उसीका नाम आत्मा है । दूसरी एक यह भी बात है कि इंद्रियों द्वारा विदित होते पदार्थोंका अनुभव इंद्रियाँ नहीं करतीं परन्तु उनका अनुभव कोई दूसरा ही करता है । किसीको नींबू खाता देखकर हमारे मुँह में पानी आता है, किसी सुन्दरी युवती स्त्रीको देखकर हममें विकार पैदा होता है, यदि इंद्रियोंके द्वारा विदित होते पदार्थोंका अनुभव भी इंद्रियाँ ही करती हों तो ऐसा न बनना चाहिये । देखें आँखें और जभिसे पानी टपके, देखें आँखे और विकार समस्त शरीरमें उत्पन्न हो, यह सब किस तरह बन सके ? अतः इससे यह बात निश्चित हो सकती है कि इंद्रियोंसे भिन्न अनुभव करनेवाला कोई अन्य ही होना चाहिये, और जो वह अनुभव करनेवाला है वही आत्मा है । इस विषय में अन्य भी एक यह अनुमान है । हम वस्तुमात्रको आँखोसे देखते हैं और फिर यदि उसे लेनी हो तो हाथसे लेते हैं । यदि श्रात्मा इंद्रियरूप ही हो तो वस्तुको श्राँखसे देखे बाद उसे लेनेकी हाथको आज्ञा कौन कर सके ? क्यों कि आँख तो मात्र देख ही सकती है परन्तु ले नहीं सकती, एवं लिवा भी नहीं सकती । अतः हाथको लेनेका और आँख को देखनेका हुकम करनेवाला कोई पदार्थ इनसे जुदा ही होना चाहिये और वह जो पदार्थ है वही आत्मा है । इस प्रकार अन्य भी अनेक प्रमाण हैं जो विशेषावश्यककी टीकामें दिये हुए हैं। वे सब ही एक आवाजले आत्माकी सिद्धि कर रहे हैं । इस लिये अब आत्माके अस्तित्व किसी प्रकारकी जरा भी शंका नहीं रह सकती, यह वात समस्त वादियोंको समझ लेनी चाहिये । इस प्रकार जैन दर्शन आत्माकी सिद्धि करता है ।
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