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जीववाद
भायुप्य अधिकसे अधिक दस हजार वर्षका होता है। जिस तरह इच्छित वस्तुओंके संयोगले मनुष्यका शरीर बढ़ता है वैसे ही भनिश्चित वस्तुओके संयोगसे घटता है, उसी प्रकार और उसी हेतुसे वनस्पतिके शरीरमें भी न्यूनाधिकता हुआ करती है। मनुष्यके शरीरको रोग होनेके कारण जिस तरह कि उसमें पीलापन, पेटका बढ़ जाना, सूज जाना, सूफ जाना, उंगलियों वगैरहका नष्ट हो जाना इत्यादि हो जाता है उसी तरह वनस्पतिके शरीरको भी इस तरह रोगोत्पत्ति होनेके कारण फूल, फल, पत्ते और छाल वगैरहमें उसी प्रकारके विकार उत्पन्न हो जाते हैं, उन सवका रंग बदल जाता है, वे सब झड़ जाते हैं, और किसी समय उनमेंसे पानी भी करता है अर्थात् मनुष्यके समान वनस्पतिको रोग भी हुआ.करते हैं। जिस प्रकार मनुष्यके शरीरमें कोई जखम या घाव हो और वह मलहम पट्टी वगैरहसे भर जाता है या रोगी मनुष्यका शरीर औषधोंके प्रयोगोंसे निरोगी हो जाता है वैसे ही वनस्पतिके शरीरको भी ओपधीका सिंचन या लेप करनेसे इसी प्रकारका फायदा होता हुआ मालूम देता है । जिस प्रकार मनुष्यका शरीर रसायन वगैरहका सेवन करनेसे बलवान और कान्तिवान् होता है वैसे ही वनस्पतिका शरीर भी खास कर आकाशके पानी वगैरहके सिंचनसे विशेष रसवाला और कान्तिवाला बनता है। खास खास वनस्पतियों के लिये एक वृक्षायुर्वेद भी लिखा हुआ है। जिस तरह स्त्रियोंका दोहद (इच्छा) पूर्ण किये वाद पुनादिका प्रसव होता है वैसे ही वनस्पतिका दोहद पूर्ण किये वाद उसे फल और फूल वगैरह पाते हैं । इस प्रकार वनस्पति और मनुप्यके देहमे विशेप साम्यता प्रत्यक्ष देख सकतेहैं तो फिर मनुष्यके देहमें जिस तरह चैतन्यके विपयमें शंका नहीं उठा सकते वैसे ही वनस्पतिके शरीरसम्बन्धमें भी शंका किस तरह उठाई जा सके ? इस विषयमें इससे भी प्रवल और क्या दलील पेश की जा सकती है ? अन्तमें जिस तरह जन्म, जरा, मृत्यु और रोग वगैरहके अस्तित्ववानी स्त्री चेतनावाली है वैसे ही और उसी कारणसे वनस्पति भी चेतनावाली है। अब