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कर्मणां सक्षयस्तु जीवात् पृथग भवनमेव, नतु तेषां विनाश; सतो विनाशासंभवात् । “नवाऽसतो जन्म सतो न नागो,दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति" इत्यभिधानादिति ।
नानाशास्त्राश्रयं प्राप्य, सप्ततत्त्वविवेचनम् । स्वावबोधप्रसिद्धयर्थ, संक्षेपात् कृतमत्र वै॥
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ।।
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कर्मो का क्षय होने का अर्थ कर्मों का जीव से अलग होना ही है न कि नाश होना क्योंकि सत् का विनाश कभी नहीं होता "असत् का कभी जन्म नही होता और सत का कभी नाश नहीं होता, प्रकाश और अन्धेरा पुद्गल की पर्याय रूप ही है" ऐसा कथन है।
"अनेक शास्त्रो का सहारा लेकर सात तत्त्वों का यह विवेचन अपने ज्ञान को प्रकट करने हेतु इस ग्रन्थ में सक्षेप में किया गया है।
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