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________________ (५० } पारतत्र्य हि जीवस्य क्रोधादिपरिणामो न पुन पारतंत्र्यतं । न च नामगोत्रसद्वे द्यायुषामात्मस्वरूपघातित्वाभावात्पारतंत्र्यनिमित्तत्त्वासिद्धिरिति वाच्यं तेषामपि जीवस्त्ररूपसिद्धत्वप्रतिबंधित्वात् पारतंत्र्यनिमित्तत्त्वोपपत्तेः । तथा सति कथं तेपामघातिकर्मत्वमितिचेज्जीवन्मुक्तिलक्षणपरमा र्हन्त्यलक्ष्मीघातित्वाभावादिति । 79(R 1908/ भावकर्माणि पुनश्चैतन्यपरिणात्मकानि । क्रोधादिभाव कर्मणामौदयिकत्वेऽपि कथचिदात्मनोऽभिन्नत्वात् चैतन्यरूपत्वाविरोधात् । ज्ञानरूपत्व तु तेषां विप्रतिषिद्ध ज्ञानस्योदयिकत्वाभावात् आता क्योकि ये क्रोधादि जीव के परिणाम परतन्त्रता स्वरूप है । निश्चय से जीव के क्रोधादि परिणाम परतन्त्र रूप है-परतत्रता के कारण नही । नाम, गोत्र, सातावेदनीय तथा आयु कर्म के आत्मा के स्वरूप का घात न करने से वे परतंत्रता के निमित्त नही है - ऐसा भी कहना ठीक नही। वे भी जीव के सिद्धत्व स्वरूप के बाधक है, अत परतत्रता मे निमित्त है ही । यदि ऐसा है तो वे प्रघाति कर्म कैसे कहलाते है तो उत्तर है कि वे जीवन्मुक्ति है लक्षण जिसका ऐसी परमोत्कृष्ट ग्रर्हन्त सबन्धी - लक्ष्मी का घात नहीं करते, अतः अघाती कहाते है । आत्मा के चैतन्य परिणामो को भाव कर्म कहते है । क्रोधादि भाव कर्मो के प्रौदयिक होने पर भी आत्मा से कथचित् भिन्न होने के कारण उन्हे चैतन्य परिणाम कहने में कोई विरोध नही आता । उन्हें ज्ञान रूप कहना अवश्य विरोध को प्राप्त होता है; क्योंकि ज्ञान प्रदयिक नहीं होता ।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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