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जीवस्य क्रोधादि पुद्गलस्य वर्णादि धर्माधर्माकाशानामगुरुलघुगुणवृद्धिहानि कृतः । ग्रादि शब्देन क्रिया परत्वापरत्वे च गह्म ते । एष व्यवहारकालस्त्रेधा व्यवतिष्ठने-भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति । तत्र परमार्थकाले कालव्यपदेशो मध्यः, भतादि. व्यपदेशो गौणः । व्यवहारकाले च भूतादिव्यपदेशो मुख्यः, कालव्यपदेशो गौरण:, क्रियावद् द्रव्यापेक्षत्वात् कालकृतत्वाच्चेति ।
ननु पुद्गलाणूवत् कालाणूनामपि कथ न अस्तिकायत्वमिति चेन्न मुख्यवृत्त्या उपचारतोऽपि वा कालारनामस्तिकायत्वासंभवात् । एकस्य पुद्गलारणोस्तु यद्यपि मुख्यवृत्याऽस्तिकायत्वं नास्ति तथापि नानास्कंधप्रदेशापेक्षयोपचारतस्तस्याऽस्तिकायस्वाभिधानं । पुद्गलागुः कदाचित् स्कंध-संबद्ध आसीत् तादृशो
वगैरह तथा धर्म अधर्म आकाश के अगुरुलघु गुरण के द्वारा होने वाली हानि वृद्धि वगैरह । आदि शब्द से क्रिया, परत्व और अपरत्व का ग्रहण किया जाता है। यह व्यवहार काल भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से तीन प्रकार है । परमार्थ काल में काल कथन मुख्य है, भूत वर्तमान वगैरह कथन गौण है। और व्यवहार काल में भूतादि कथन मुख्य है, काल कथन गौरण है, क्रिया की तरह द्रव्य की अपेक्षा रखने से तथा कालकृत होने से।
शंका:-पुद्गल के अणु की तरह कालाणुप्रो को भी अस्ति काय क्यों नही माना?
समाधान --यह कहना ठीक नही । कालारणों को न तो मुख्य रूप से और न उपचार रूप से अस्तिकायपना संभव है। एक पुद्गलाणु के यद्यपि मुख्य रूप से अस्तिकायपना नहीं है तो भी नाना स्कन्ध प्रदेशों का कारण होने की अपेक्षा से उसे उपचार रूप से अस्तिकाय कहा है। पुद्गलाणु कभी स्कन्ध