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धिर्मद्रव्यलक्षणं च तेपां तथैव स्थितिरूपपरिणतानां स्थिति
तुत्वं, यथा पथि गच्छतामातपक्लान्तानां छाया । न चेमौ धर्माधमौं तेषां गतिस्थित्योः प्रेरको अपितु स्वयं तथापरिणमपानानां तेषामुदासीनौ हेतू । अतएव तुल्यवलत्वात्तयोर्गतिस्थतिप्रतिबंधारेकाऽपि निरस्ता।
ननु प्रमाणाभावादनुपलब्धेश्च न धर्माधर्मद्रव्यास्तित्वमितिवेन्न अनुमानतस्तयोरस्तित्वसिद्धः । तथाहि-विवादापन्नाः सकलजीवपुद्गलाश्रयाः सकृद्गतयः साधारणवानिमित्तापेक्षा पुगपद्भाविगतित्वात्, एकसरः सलिलाश्रयानेकमत्स्यगतिवत् । स्वयं गति करते है उनको माध्यम बनकर सहायक होता है, जैसे मछली के चलने में जल, ठहरने वाले जीव और पुद्गलों को ठहरने में जो साधारण कारण होता है वह अधर्म द्रव्य है। जैसे धूप से त्रस्त पथिकों को ठहरने में छाया सहकारी होती है। यह धर्म और अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों को चलने और ठहरने में प्रेरक कारण नहीं हैं बल्कि अपने आप चलते और ठहरते हुए जीव और पुद्गलो के चलने और ठहरने मे उदासीन कारण हैं। इसीलिए दोनो द्रव्यों के समान शक्तिशाली होने से गति और स्थिति में बाधा पड़ने की शंका भी निमूर्ल हो जाती है।
शंका उठती है कि साधक प्रमाण के न होने से तथा दिखाई न पडने से धर्म तथा अधर्म द्रव्य का सद्भाव ही नहीं है, यह ठीक नही-अनुमान प्रमाण से उन दोनों द्रव्यों का सद्भाव सिद्ध होता है। जैसे कि:-विवादास्पद गतिमान जीव और पुद्गलो का समूह साधारण बाह्य निमित्त की अपेक्षा रखने वाला है, युगपद् भावी गति वाला होने से। एक सरोवर के जल का प्राश्रय लेने वाली अनेक मछलियों की गति की भांति। अर्थात् जैसे एक सरोवर में निवास करने वाली मछलियो को