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नित्या । अनित्यचित्रादीना चानित्येति ।
अनागत पर्यायविशिष्टं द्रव्यं हि द्रव्यनिक्षेप इत्युच्यते । एष द्विविध: प्रागमद्रव्यनिक्षेपो नोचागमद्रव्यनिक्षेपश्चेति । तत्र तद्विषयकप्राभृतज्ञाताऽनुपयुक्त श्रात्मा प्रथमः । यथा राजज्ञानविशिष्टोऽनुपयुक्तो मनुष्य प्रागमद्रव्यराजा । यत्र हि विपयिरिण ज्ञाने विपयस्य ज्ञेयपदार्थस्योपचारो विधीयते । विपयविपयिभावसम्बन्धेन राजज्ञानमेव राजा प्रोच्यते । राजा तु मम हृदये वर्तत इत्यत्र राजज्ञानस्य हृदये वर्तनत्वसंभवो न तु राज्ञः । तस्य तत्र वर्तनासंभवादिति पूर्वमुक्तं ।
दिक की स्थापना है वह नित्य है, और अनित्य चित्र वगैरह मे जो स्थापना है वह अनित्य है ।
जो पदार्थ प्रागामी काल में जिस रूप से होगा उस पदार्थ को वर्तमान में भी उसी रूप से व्यवहार करना द्रव्य निक्षेप कहलाता है । भावी पर्याय के समान भूत पर्याय भी द्रव्य निक्षेप का विषय है। इस निक्षेप के ग्रागम द्रव्य निक्षेप और नो श्रागम द्रव्य निक्षेप, इस तरह दो भेद हैं। इनमें उस विषय के शास्त्र का ज्ञाता पर उसके उपयोग से रहित जो श्रात्मा है वह आगम द्रव्य निक्षेप है । जैसेकि राजज्ञान से संयुक्त लेकिन उसके उपयोग से रहित मनुष्य ग्रागम द्रव्य राजा है। निश्चय से यहां विपयीज्ञान में विषय-ज्ञेय पदार्थ का उपचार किया गया है क्योंकि विषय विषयी सम्बन्ध से राज ज्ञान को ही राजा कहते हैं ।
राजा तो मेरे हृदय में मौजूद है - इसमे राजा का ज्ञान ही हृदय में हो सकता है न कि राजा क्योंकि राजा हृदय में रह नहीं सकता - ऐसा पहले कहा है ।