SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १५८ ) नामनिक्षेपे हि नादरानुग्रहाकाक्षा, स्थापनानिक्षेपे तु सा भवेदेव । न खलु महावीरनामवतः पुरुपस्य महावीरवदादरादि क्रियते । महावीरप्रतिमायास्तु महावीरवत् स्तुतिभक्तिपूजोपासनादि क्रियत एव। न च केचिन्मूर्तावपि आदरानादरी न कुर्वन्तीतिवाच्यम् ।। ये मूादिषु स्थापनां न कुर्वन्ति तेषा तत्रादरानादरादिसंभावनैव न विद्यते । ये तु स्थापनारोपं कुर्वन्ति तत्र तेषामादरानादरादिर्भवत्येव । ननु केचिन्नामधेयेऽप्यादरबुद्धि कुर्वन्तीति कथमुच्यते स्थापनायामेवादरानारादिबुद्धिर्भवतीति चेन्न । कई मूर्ति मे भी आदर अनादर नही करते, ऐसा कहना ठीक नही, क्योकि जो मूर्ति वगैरह में स्थापना नहीं करते उनके लिए तो आदर अनादर का प्रश्न ही नही उठता। लेकिन जो स्थापना का प्रारोप करते है उनका उस वस्तु में आदर-अनादर होता ही है । शंका-कई लोग नामधारी का भी आदर अनादर करते देखे जाते हैं-तब यह कैसे कहा जा सकता है कि स्थापना मे ही आदर-अनादर भाव होता है ? समाधान-ऐसा कहना युक्ति संगत नही, क्योंकि उस देव नामक पदार्थ मे अगर लोग महान् भक्ति के कारण पादर भाव करते है तो वह स्थापना-निक्षेप ही है नाम-निक्षेप नहीं । शंका-विद्वान् लोग नाम वाले पदार्थ की स्थापना किया करते हैं-वह नाम का व्यवहार तो चारोही निक्षेपों से होता है। इसलिए कौन से नाम वाले पदार्थ की स्थापना की जाती
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy