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जातिरन्या वा प्रत्यक्षत. प्रतीता समपलभ्यते । अन्यथा किमयं ब्राह्मणोऽन्यो वेति संशयो न भवेत, तथा च तन्निरासाय गोत्राघुपदेशो व्यर्थः । न हि गौरयं मनुष्यो वेनि निश्चियो गोत्राद्युपदेशमपेक्षते। . ___ यावज्जातिकुल भिमानस्तिष्ठति मनुष्ये न तावद् धर्मावकाश: । धर्माचरणे सर्वेषां स्वतंत्रत्वात् । न.च जातिधर्मयो: कश्चनाविनाभावो विद्यते । धर्मोद्यात्मस्वरूपं शरीरे कल्पिताया जात्यास्तत्र क उपयोगः, जातिवादावलेपेन मनुष्यस्य पतनं भवति । मुक्तिहि न कामपि जातिमपेक्षते । अत एव तदाप्ती वद्धपरिकरो योगी जात्यातीतो वर्णातीतश्च भवति । जात्याघष्टविधमदवेशपरित्यजनमन्तरेण न च कोऽपि विमुक्तो भवति जात्याग्रहो हेयः। ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ।। से अनुभव में नहीं आता । अन्यथा क्या यह ब्राह्मण है अथवा अन्य है ऐसा संशय नही होना चाहिए और वैसा होने पर उस संशय को मिटाने के लिए गोत्र वगैरह का उपदेश देना व्यर्थ होगा। यह गाय है या मनुष्य इसका निश्चय करने के लिए गोत्र वगैरह के उपदेश की जरूरत नहीं होती।
मनुष्य में जबतक जाति और कुल का अभिमान रहता है तबतक उसमें धर्म का प्रवेश नहीं होता। धर्म का आचरण करने का सबको समान अधिकार है। जाति और धर्म में कोई अविनाभाव नही है। धर्म तो आत्मा का स्वरूप है अतः शरीर मे कल्पित की जाने वाली जाति में उसका क्या उपयोग संभव है। जातिवाद के चक्कर से मनुप्य का पतन होता है। वस्तत मक्ति किसी भी जाति की अपेक्षा नही रखती। इसीलिए परमात्मा से लो लगाने वाला योगी जाति और वणं से रहित होता है । जाति, कुल, ज्ञान, पूजा, बल, ऋद्धि, तप और शरीर त प्राठो के अभिमान का त्याग किए बिना कोई भी कमोसे
नहीं होता इसलिए जातिवाद के हठ को छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। तृतीय प्रध्याय पूर्ण हुमा।