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( १४३ ) विचते स किमर्थमारंभमद्योग विरोधं वा कुर्यादिति स सर्वहिसाविनिवृत्त. सर्वसहश्च । काञ्चनाश्मशत्रमित्रनिन्दाप्रशंसादिसमवृत्ति. साधु पूर्णतोऽहिंसको भूत्वा चलति, भाषते, भाहरति, पुस्तकादि पादत्ते निक्षिपति च, उत्सृजति मलमूत्रादीन्, शेते, निषीदति सहते वा परकृतक्लेशादि। . .
गृहस्थस्तु परित्यक्तहिसासंकल्प आरंभोद्योगादिषु हिसामपरित्यन्नपि न कदाप्येतेषु व्यर्थी हिसां करोति । वस्तुतो हिसाया अघहेतुत्वात् । स ह्यल्पारभपरिग्रहे सन्तुष्टो निवार्यो हिसामवश्यमेव निवारयति । वहारंभपरिग्रहवांस्तु नादर्शगृहमेधी। तादृशो हिंसाया वैपुल्यात् । एतादृशहिसा-अभावरूपाऽअहिसाऽऽचरणाहीं. अलावा अपना कुछ भी नहीं वह किस लिए आरभ उद्योग तथा विरोध करे-वह तो सम्पूर्ण प्रकार की हिंसा को छोड़ देता है और सब उपसर्गो,को समता भावों से सहन करता है। स्वर्णपत्थर, शत्रु-मित्र, निदा-प्रशंसा वगैरह में समता भाव धारण करने वाला वह साधु पूर्ण अहिंसक होकर चलता है, बोलता. है, भोजन करता है, पुस्तक वगैरह उठाता और रखता है तथा मल मूत्र वगैरह का विसर्जन करता है, सोता है, वैठता है अथवा दूसरो के द्वारा दिए गए दुखों को सहन करता है।
गृहस्थ तो संकल्पी हिसा का-त्याग करके प्रारभ उद्योग वगैरह मे हिसा का त्याग नहीं करता। लेकिन व्यापार वगैरह मे भी वह व्यर्थ हिसा से सदा बचता है क्योंकि हिंसा तो वास्तव में पाप ही का कारण है वह थोडे प्रारंभ और थोडे परिग्रह मे होमत्तष्ट रहता हया जिस हिंसा से टल सकता है अवश्य ही टलता है। बहुत प्रारभी और वहुत परिग्रह रखने वाला तो आदर्श गृहस्थी ही नहीं है क्योंकि वंसी स्थिति में तो हिंसा की जाता है। ऐसी हिंसा के प्रभाव रूप अहिंसा का ही पालन करना चाहिए।