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(१०६ ) विपयत्वसंभव:, कथचित्सत्त्वेन सह तस्य विरोधाभावाद, तथा च कथ प्रथम. सशय इति चेत्-दशितसंशये कथञ्चिदस्तित्वसर्वथाऽस्तित्वयोरेव कोटिता। तयोश्च परस्परं विरोधान्नोक्तानुपपत्तिः । एवं द्वितीयादिसंशयप्रकारा अपि ज्ञातव्याः ।
ननु धर्माणां सप्तविधत्वसिद्धयभावे नैतत् सर्वमुपपन्न भवति । तत्सप्तविधत्वसिद्धिश्च न संभवेत् । प्रथमद्वितीयधर्मवत् प्रथमतृतीयादिधर्माणां क्रमाक्रमापिताना धर्मान्तरत्वसिद्धः सप्तविधधर्मनियमाभावात्, इति चेन्न, क्रमाक्रमापितयोः प्रथमतृतीयधर्मयोधर्मान्तरत्वेनाप्रतीते. । स्यादस्ति घट इत्यादी घट
के साथ उसका विरोध नहीं है। किसी विवक्षा से सत्ता और किसी विवक्षा से असत्ता भी रह सकती है। तो जब कथंचित सत्त्व असत्त्व का विरोध ही नहीं तो 'घटः स्यादस्त्येव न वा' यह पहला संशय कैसे उत्पन्न होगा?
समाधान-पूर्व दर्शित संशय में कचित् अस्तिता और सर्वथा अस्तिता में दो कोटि है और उन दोनों धर्मों का परस्पर विरोध होने से संशय हो सकता है। इसी तरह दूसरे तीसरे
आदि संशय के प्रकारों को भी जान लेना चाहिए। ___शंका-यह सब तभी ठीक बैठ सकता है जबकि धर्मो के सात ही भेद सिद्ध हो परन्तु धर्मों के सात भेद संभव नही है। प्रथम द्वितीय धर्म के सदृश क्रम तथा अक्रम से अपित प्रथम ततीय आदि धर्मों से सप्त धर्म से भिन्न अन्य धर्मों की सिद्धि हो जाने से सात ही प्रकार के धर्म है- यह नियम नहीं हो सकता।
समाधान-ऐसा कहना ठीक नही; क्योकि क्रम और अक्रम से अर्पित प्रथम तृतीय धर्मों की योजना से धर्मान्तर की प्रतीति नहीं होती। "स्यादस्ति पट:" घट किसी अपेक्षा से है इत्यादि