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(१०८ ) सत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्व, क्रमापितोभयविशिष्टावक्तव्यत्वम् चेति सप्तव । एव च दशितधर्मविपयका सप्तव संशयाः । तथा चोक्त
"भङ्गाः सत्त्वादयः सप्त, संशयाः सप्त तद्गताः । जिज्ञासाः सप्त, सप्त स्युः प्रश्नाः सप्तोत्तराण्यपि।"
अत्र घट. स्यादस्त्येव वा नति कथंचित्सत्त्वतदभावकोटिकः प्रथमः संशयः ।
ननु कथंचित्सत्त्वस्याभावः कथंचिदसत्त्व, तस्य न संशय
प्रवक्तव्यत्वं (युगपत् कहा नहीं जा सकने से प्रवक्तव्यत्व) कथचित्सत्वविशिष्टावक्तव्यत्वं (प्रथम समय में अस्ति की और द्वितीय समय में अवक्तव्य की क्रमिक विवक्षा होने पर अस्ति प्रवक्तव्यत्व ) कथंचिदसस्वविशिष्टावक्तव्यत्वं (प्रथम समय में नास्ति और द्वितीय समय मे प्रवक्तव्य की ऋमिक विवक्षा होने पर नास्ति वक्तव्यत्व ) क्रमापितोभयविशिष्टावक्तव्यत्वम् (प्रथम समय में अस्ति, द्वितीय समय मे नास्ति पौर तृतीय समय में प्रवक्तव्य की क्रमिक विवक्षा होने पर अस्ति नास्ति प्रवक्तव्यत्व)। इस प्रकार सातों संशयों का विषयभूत धर्म निरूपण किया। कहा भी है:
वाक्य में सत्व वगैरह सप्तभग इसी कारण से है कि उनमे स्थित सशय भी सात होते हैं और संशय भी सात इसलिए है कि जिज्ञासा सात ही प्रकार की होती है। जिज्ञासा के सप्त भेदों से ही सात प्रकार के प्रश्न तथा उत्तर भी होते है।
यहाँ पर 'घट है या नहीं यह घट के विषय मे सत्व तथा उसके अभाव विपयक प्रथम संशय है।।
शंका-कथंचित् सत्त्व का अभाव कथंचित् असत्ता रूप ही है-वह सशय का विषय नही हो सकता क्योंकि कथंचित् सत्त्व