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( ७६ ) स्मरणं, प्रत्यभिज्ञान, भूयोदर्शनरूपं प्रत्यक्षं च मिलित्वा एतीदृशमेकं ज्ञानं समुत्पादयन्ति यद्व्याप्तिग्रहणसमर्थ, तर्कोऽपि स एव ।
ननु अनुमान व्याप्ति गृह्णीयादिति चेन्न, प्रकृतानुमानापरा. नुमानकल्पनायामन्योन्याश्रयाऽनवस्थाऽवतारात् । प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पो व्याप्ति गृह्णातीतिपक्षेपि तद्विकल्पस्याप्रमारणत्व कथं तद्गृहीतव्याप्तौ समाश्वासः, प्रमाणत्वे तु प्रत्यक्षानुमानातिरिक्तः तर्क एवेति सिद्ध तख्यि पृथकप्रमारणमिति ।
ननु व्याप्यारोपेण व्यापकारोगरूपस्तों मिथ्याज्ञानमेवेतिचेन्न, तस्य मिथ्याज्ञानत्वेऽनुमास्य न कदाचिदपि प्रामाण्यं स्यादिति तर्कस्य प्रामाण्यमवश्यमेव स्वीकर्तव्यम् । तो स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और पुन: दर्शन रूप प्रत्यक्ष मिलकर ऐसे एक ज्ञान को पैदा करते है जो व्याप्ति का ज्ञान करने में समर्थ है, और वह ज्ञान तर्क ही है।
अनुमान व्याप्ति का ज्ञान करलेगा यह भी ठीक नही बैठता। प्रकृत अनुमान के लिये दूसरे अनुमान की और उसके लिए दूसरे और अनुमान की कल्पना करने पर अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष का प्रमंग उपस्थित होगा। प्रत्यक्ष के बाद मे होनेवाला विकल्प व्याप्ति को जान लेगा-इस पक्ष में भी उस विकल्प के अप्रमाण होने पर उसके द्वारा ग्रहण की गई व्याप्ति का विश्वास कैसे होगा और यदि वह विकल्प प्रमाण है नो प्रत्यक्ष अनुमान के अलावा वह तर्क प्रमाण ही है। इस तरह तर्क नाम का प्रभारण भिन्न सिद्ध हो जाता है ।
शका-व्याप्य (साध्य-अग्नि) के आरोप से व्यापक (साधनधूवा) का आरोप रूप जो तर्क है वह मिथ्याज्ञान ही है ?
समाधान-ऐसा कहना ठीक नही । तर्क को मिथ्याज्ञान मानने पर अनुमान को कभी प्रमाणता नही होगी, इसलिए नर्क प्रमाण की प्रमाणता अवश्य स्वीकार करनी चाहिए ।