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( ६३ ) वगमनमवायः, यथा-उत्पतननिपतनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकैवेयं न पताकेति । अवेतस्य कालांतरेऽविस्मरणकारणं धारणा, यमा सैवेयं वलाका पूर्वाह्न यामहमद्राक्षमिति ।
एतदवग्रहादिज्ञानचतुष्टयस्य निदर्शनान्तरमपीद, स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थं ज्ञातव्यम्-यथायं पुरुष इति अवग्रहः, ततः पुरुष इति निश्चितेऽर्थे किमयं दाक्षिणात्य उतौदीच्य इति संशये सति दाक्षिणात्येन भवितव्यमिति तन्निरासायेहाख्यं ज्ञानं जायते । पुन. भाषादिविशेषनिर्जानाद् दाक्षिणात्य एवाऽयमिति अवायः, एतदेव स्मृतिजननसमर्थं ज्ञानं धारणा प्रोच्यते यद्वशात् स दाक्षिणात्य इत्येव स्मरणं जायते ।
से यह बगुलों की पक्ति ही है ध्वजा नहीं । अवाय के द्वारा जाने हुये को कालान्तर मे न भूलने के कारण को धारणा कहते हैं, जैसे यह वही बगुलों की पक्ति है जिसको मैने कल देखा था।
इन अवग्रहादि चारो ज्ञानो के उदाहरण कह देने पर भी और स्पष्ट ज्ञान करने के लिए उदाहरण है-जैसे यह पुरुष है यह अवग्रह है । उसके बाद यह पुरुष है इस निश्चित पदार्थ मे यह पुरुष दक्षिणी है या उत्तरी, ऐसा संशय होने पर यह दक्षिणी होना चाहिए । संशय का निराकरण करने के लिये ईहा नामक ज्ञान पैदा होता है । फिर बोलचाल वेशभूपा वगैरह चिन्हो से यह दक्षिणी ही है-यह अवाय ज्ञान होता है। यही प्रवाय जव कालान्तर में स्मृति का उत्पादन करने में समर्थ होता है तो धारणा ज्ञान कहा जाता है जिसकी वजह से वह दक्षिणी ऐसा स्मरण होता है।