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ज्ञानात्मक प्रत्यक्षं । अग्निरस्तीति प्राप्तवचनात् धूमादिलिङ्गाच्त्रोत्पन्नाज्ज्ञानादयमग्निरिति प्रत्यक्षस्य नैर्मल्य स्यानुभवमिद्धम् । यस्मिन् ज्ञाने ज्ञानातरस्य व्यवधान न भवति, विशेषवत्तया प्रतिभासनं च भवति तत् प्रत्यक्षमित्यर्थः । तत् द्विविध साव्यवहारिक पारमार्थिकं च । यज्ज्ञान देशतो विशदमीषन्निर्मल तत् साव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् । समीचीनो व्यवहार संव्यवहारः, स प्रयोजनमस्य तत् साव्यवहारिकमैन्द्रियक प्रत्यक्षमित्यर्थं । तस्यावग्रहेहाऽवायधारणा इति चत्वारो भेदाः । तत्र विपयविषयसन्निपातसमयानंतरमाद्यग्रहणमवग्रह, यथा चक्षुपा शुक्लं रूपमिति ग्रहणम् । अवग्रहगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकांक्षरणमीहा यथा शुक्लं रूप वलाका भवेत् । विशेषनिदर्शनाद् याथात्म्या - प्रत्यक्ष और परोक्ष | वहां विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है । अग्नि है - ऐसे प्राप्त मनुष्य के कहने से और घूम वगैरह हेतु से उत्पन्न हुए अनुमान ज्ञान से यह अग्नि है, इस तरह प्रत्यक्ष की निर्मलता अपने अनुभव से सिद्ध है। जिस ज्ञान में दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती, और विशेष रूप से प्रतिभास होता है वह प्रत्यक्ष है । वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है, साव्यवहारिक और पारमार्थिक | जो ज्ञान एक देश निर्मल होता है या थोड़ा निर्मल होता है वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । उत्तम व्यवहार को सव्यवहार कहते है और वह है प्रयोजन जिसका उसे सांव्यवहारिक या इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते है । उसके अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चार भेद हैं । वहा पदार्थ और इन्द्रिय के योग्य देश मे स्थित होने के समय के बाद जो पहला ज्ञान होता है वह अवग्रह होता है, जैसे प्रांख से सफेद रंग का ज्ञान होना । अवग्रह के द्वारा जाने हुये पदार्थ के सम्बन्ध में विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं, जैसे सफेद रंग की बगुलों की पक्ति होनी चाहिए । विशेष चिन्हों से निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय कहते है, जैसे ऊंचे उठने, नीचे गिरने, पंखों के फ़डफडाने प्रादि
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