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________________ ननू चक्षुषा प्रमिणोमि, धूमेनानमिनोमि, शब्देन विजानामि, गवोपमिनोमीत्यादी ज्ञानातिरिक्तानामपि प्रमितिकरणत्वं दृश्यते, तथा च तेषामपि प्रमाणत्वाभ्युपगमे को दोषः इति चेन्न, तेषा प्रमितौ ज्ञानेन व्यवहितत्वात् । औपचारिका हीमे प्रयोगाः अन्न । वै प्राणाः, धन वै प्राणाः, आयुर्वेघृतमित्यादिवत् । चक्षुरादयो हिं तत्र सहकारिण न तु प्रमाणानि, ततः प्रमितिक्रिया प्रति तेषा साधकतमत्वाभावान्न प्रमाणत्वं । तदुक्त प्रमाणनिये "इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत् प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम्" । चक्षुरादयो ह्यचेतना न ते स्वावभासनसमर्था । ततः कथं तेषा परावभासकत्वं स्यात् । ततोऽस्वसविदिताना स्वावभासनेऽ __णका --ग्राख से देखता हूँ, धूम से अनुमान करता हूं, शब्द से जानता हू, इन्द्रिय से प्रमाणित करता हू-इत्यादि वाक्यो में ज्ञान के अलावा और भी जानने रूप क्रिया के करण देखे जाते हैं, अत उन्हे भी प्रमाण मान लेने में क्या आपत्ति है ? । समाधान:-ऐसा नहीं है, जानने रूप क्रिया मे उनके ज्ञान से बाधा आती है। अन्न ही प्रारण है, धन ही प्राण है, घृत ही आयु है-इत्यादि की तरह प्रांख से देखना वगैरह प्रयोग उपचार से है। प्रमिति रूप क्रिया में चक्षु वगैरह सहकारी कारण जरूर है पर प्रमाण नही, इसलिये प्रमिति रूप क्रिया के प्रति चक्षु वगैरह को साधकतम न होने से प्रमाणता नही है। प्रमाण निर्णय मे ऐसा ही कहा है वही सच्चा प्रमाण है जो जानने रूप क्रिया के प्रति साधकतम करण हो। वस्तुतः चक्षु वगैरह अचेतन है, वे अपने स्वरूप को जानने मे समर्थ नही, फिर वे दूसरों का ज्ञान कसे करा सकेंगे ? इसलिए अपने आप को नही जानने वाले और अपना ज्ञान कराने में असमर्थ उन चक्षु वगैरह को दूसरो का ज्ञान कराना
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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