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( ५५ । सद्धि प्रमाणं भवति । प्रमितिक्रियां प्रति तस्यैव करणत्वात् । प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येनेतिव्युत्पत्तेः । प्रमितिक्रिया हि अज्ञाननाशात्मिका । अज्ञानं तु ज्ञानमन्तरेण न विनाशयितुं शक्यते, तत्तस्तस्यैव तत्र करणत्वोचितस्वात् । यथांधकारनाशने प्रदीपो हेतुस्तस्य तद्विरोधित्वात्, तथाsज्ञाननिरासे ज्ञानं । तथाचाज्ञानरूपः सन्निकर्षः, जडानीद्रियारिण, अन्ये च प्रमितेः परम्पराहेतवो न प्रमाणानि, तेषा तत्साक्षाद्ध'तुस्वाभावात् । साधकविशेषस्य अतिशयवतः करणत्वात् । साधकतम करणमिति जैनेंद्रव्याकरणे प्रोक्तत्वात् । अपने आपको और अग्रहीत पदार्थ को निश्चित रूप से जानता है वह नियम से प्रमाण होता है। जानने रूप क्रिया के प्रति वह ज्ञान ही करण होता है। प्रकर्ष रूप से अर्थात् संशयादि दोषो से रहित वस्तु का स्वरूप जिसके द्वारा जाना जाता है वह प्रमाण है । प्रमाण की यह व्युत्पत्ति है । वास्तव में जामने रूप क्रिया अज्ञान की नाशक है । अज्ञान ज्ञान के बिना कभी नाश को प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिए ज्ञान को ही करण मानना उचित्त है। जैसे अधकार का नाश करने मे प्रदीप कारण है क्योकि वही अधकार का विरोधी है, उसी तरह अज्ञान का नाश करने मे ज्ञान कारण है। इस तरह अज्ञान रूप सन्निकर्ष, जड़ इन्द्रियां तथा और भी जो जानने के परम्परा कारण है वे प्रमाण नहीं है, क्योकि वे ज्ञान के साक्षात् कारण नहीं है। करण वही हो सकता है जो अतिशय रूप से यथार्थ ज्ञान का साधक हो । जो उत्कृष्ट साधक हो वही करण होता है अर्थात् प्रमा नाम वस्तु के यथार्थ ज्ञान का है उसकी उत्पत्ति मे जो विशिष्ट कारण होता है वह करण कहलाता है। ऐसा जैनेंन्द्र व्याकरण मे कहा है।