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६६] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा कारण कि धुए के माथ अग्नि होने का नियम है, वैसे अमिमान् पर्वत होने का नियम नहीं बनता। अग्नि पर्वत के सिवाय अन्यत्र भी मिलती है। साधन् के प्रयोगकाल में साध्य धर्मी होता है। धमीं तीन प्रकार का होता है
(१) बुद्धि-सिद्ध। (२) प्रमाण-सिद्ध। (३) उभय-सिद्ध ।
(१) प्रमाण से जिसका अस्तित्व या नास्तित्व सिद्ध न हो किन्तु अस्तित्व या नास्तित्व सिद्ध करने के लिए नो शाब्दिक रूप में मान लिया गया हो, वह 'बुद्धि-सिद्ध धर्मी' होता है। जैसे-'सर्वज्ञ है' । अस्तित्व सिद्धि से पहले सर्वज्ञ किसी भी प्रमाण द्वारा सिद्ध नही है। उसका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पहले पहल जब धर्मी बनाया जाता है, तब उसका अस्तित्व बुद्धि से ही माना जाता है। प्रमाण द्वारा उसका अस्तित्व बाद मे सिद्ध किया जाएगा। थोड़े मे यो समझिए-जिस साध्य का अस्तित्व या नास्तित्व साधना हो, वह धर्मी बुद्धि-सिद्ध या विकल्प सिद्ध होता है।
(२) जिसका अस्तित्व प्रत्यक्ष आदि प्रमाणो से सिद्ध हो, वह धर्मी 'प्रमाण सिद्ध होता है। 'इस वादल में पानी है'बादल हमारे प्रत्यक्ष है। उसमे पानी धर्म को सिद्ध करने के लिए हमें बादल, जो धर्मी है, को कल्पना से मानने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
(३) 'मनुष्य मरणशील है'यहाँ म्रियमाण मनुष्य प्रत्यक्ष-सिद्ध है और मृत तथा मरिष्यमाण मनुष्य बुद्धि-सिद्ध | "मनुष्य मरणशील है" इसमे कोई एक खास धर्मी नहीं, सभी मनुष्य धमीं हैं। प्रमाण-सिद्ध धीं व्यक्त्यात्मक होता है, उस स्थिति में उभय-सिद्ध धमी जात्यात्मक। उभय-सिद्ध धर्मी में सत्ता असत्ता के सिवाय शेष सब धर्म साध्य हो सकते हैं।
अनुमान को नास्तिक के सिवाय प्रायः सभी दर्शन प्रमाण मानते हैं। नास्तिक व्याप्ति की निर्णायकता स्वीकार नहीं करते। उसके विना अनुमान ही नहीं सकता। व्याति को सदिग्ध मानने का अर्थ तर्क से परे हटना होना चाहिए।