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जैन दर्शन मैं प्रमाण मोमांसा ६५ दूसरी पर्याय बनती है, पहली मिट जाती है। वृक्ष कार्य है । वह टूटता है, तब उसकी लकड़ी बनती है। दूसरे कार्य में पहले कार्य का प्रध्वस-रूप अभाव होता है। लकड़ी में वृक्ष का प्रभाव है या यो कहिए लकड़ी..वृक्ष का प्रध्वंसाभाव है। लकड़ी की त्राविर्भाव-दशा में वृक्ष की तिरोभाव-दशा हुई है। मध्यमाभाव सादि-अनन्त है। जिस वृक्ष की लकड़ी बनी, उससे वही वृक्ष कभी नहीं बनता। इससे यह भी समझिए कि प्रत्येक सादि पदार्थ सान्त नहीं होता। ___ अपर की पंक्तियो को थोड़े में यू समझ लीजिए-वर्तमान दशा पूर्वदशा
कार्य बनती है और उत्तर दशा का कारण । पूर्वदशा उसका प्राक्-अभाव होता है और उत्तर दशा प्रध्यम-अभाव ।
एक बात और साफ कर लेनी चाहिए कि द्रव्य सादि-सान्त नहीं होते। मादि-सान्त द्रव्य की पर्याएं (अवस्थाएं) होती हैं। अवस्थाएं अनादि-अनन्त नहीं होती किन्तु पूर्व-अवस्था कारण रूप में अनादि है। उससे बनने वाली वस्तु पहले कभी नही बनी। उत्तर अवस्था मिटने के बाद फिर वैसी कभी नहीं बनेगी, इमलिए वह अनन्त है। यह सारी एक ही द्रव्य की पूर्व-उत्तरवर्ती दशाश्री की चर्चा है। अब हमे अनेक सजातीय द्रव्यो की चर्चा करनी है। (खम्भा पौद्गलिक और घड़ा भी पौद्गलिक है किन्तु खम्भा घड़ा नही है और घड़ा खम्भा नहीं है। दोनो एक जाति के हैं फिर भी दोनो दो है। यह 'इतरइतर-अभाव' आपस में एक दूसरे का अभाव है ) खम्भे में घड़े का और घड़े मे खम्भे का अभाव है। यह न हो तो हम वस्तु का लक्षण कैसे बनाये ! किसको खम्मा कहे और किसको घड़ा। फिर सब एकमेक बन जाए गे, यह अभाव सादि-सान्त है। खम्मे के पुद्गल स्कन्ध घड़े के रूप में और घड़े के पुद्गल स्कंध खम्मे के रूप में बदल सकते हैं किन्तु सर्वथा विजातीय द्रव्य के लिए यह नियम नहीं। चेतन-अचेतन और अचेतन-चेतन तीन काल मे भी नहीं होते। इसका नाम है-अत्यन्त अमाव 1 यह अनादि-अनन्त है। इसके विना चेतन और अचेतन इन दो अत्यन्त भिन्न पदार्थों की तादात्म्यनिवृत्ति सिद्ध नहीं होती। साध्य-धर्स और धर्मी
साध्य और साधन का सम्बन्ध मात्र जानने में साध्य धर्म ही होता है।