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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
--- धारणाकाल में जो सतत उपयोग चलता है, उसे अविच्युति कहा जाता है। उपयोगान्तर होने पर धारणा वासना के रूप में परिवर्तित हो। जाती है। यही वासना कारण-विशेष से उबुद्ध होकर स्मृति का कारण बनती है । वासना स्वय ज्ञान नहीं है किन्तु अविच्युति का कार्य और स्मृति का कारण होने से दो ज्ञानी को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में ज्ञान मानी जाती है।
व्यवहार प्रत्यक्ष की परम्परा यहाँ पूरी हो जाती है। इसके बाद स्मृति आदि की परोक्ष परम्परा शुरू होती है।
अवग्रह के दो भेद हैं-व्यावहारिक और नैश्चयिक ।
श्री भिक्षुन्यायकर्णिका में व्यवहार प्रत्यक्ष की जो रूपरेखा है, वह नैश्चयिक अवग्रह की मित्ति पर है। व्यावहारिक अवग्रह की धारा का रूप कुछ दूसरा बनता है।
(नैश्चयिक अवग्रह अविशेषित सामान्य का ज्ञान कराने वाला होता है। इसकी चर्चा ऊपर की गई है। व्यावहारिक अवग्रह विशेषित-सामान्य को ग्रहण करने वाला होता है। नैश्चयिक अवग्रह के बाद होने वाले ईहा, अवाय से जिसके विशेष धमों की मीमांसा हो चुकती है, उसी वस्तु के नये नये धमों की जिज्ञासा और निश्चय करना व्यावहारिक अवग्रह का का काम है। अवाय के द्वारा एक तथ्य का निश्चय होने पर फिर तत्सम्बन्धी दूसरे तथ्य की जिज्ञासा होती है, तब पहले का अवाय व्यावहारिक-अर्थावग्रह बन जाता है और उस जिज्ञासा के निर्णय के लिए फिर ईहा और अवाय होते हैं। यह काम तब तक चलता है, जब तक जिज्ञासाएँ पूरी नहीं होती। . . निश्चयिक अवग्रह की परम्परा-'यह शब्द ही है. यहाँ समान हो जाती है। इसके बाद व्यावहारिक-अवग्रह की धारा चलती है। जैसे :(१) व्यावहारिक अवग्रह-यह शब्द है।
[संशय-पशु का है या मनुष्य का ?] (२) ईहा-स्पष्ट भाषात्मक है, इसलिए मनुष्य का होना चाहिए। (३) अवाय-(विशेष परीक्षा के पश्चात् ) मनुष्य का ही है। व्यवहार-प्रत्यक्ष के उक्त आकार मे-'यह शब्द है' यह अपायात्मक