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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसो
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अनध्यवसाय अर्थावग्रह का ही आभास है । अर्थावग्रह के दो रूप बनते हैंनिर्णयोन्मुख और अनिर्णयोन्मुख | अर्थावग्रह निर्णयोन्मुख होता है, तब प्रमाण होता है और जब वह निर्णयोन्मुख नहीं होता अनिर्णय में ही रुक जाता है, तब वह अनध्यवसाय कहलाता है । इसीलिए अनध्यवसाय का अवग्रह में समावेश होता है १४ ।
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ग्रह के बाद संशय ज्ञान होता है । 'यह क्या है ? --- शब्द है अथवा स्पर्श ?' इसके अनन्तर ही जो सत्-अर्थ का साधक वितर्क उठता है - 'यह श्रोत्र का विषय है, इसलिए 'शब्द होना चाहिए', इस प्रकार अवग्रह द्वारा जाने हुए पदार्थ के स्वरूप का निश्चय करने के लिए विमर्श करने वाले ज्ञान- क्रम का नाम 'हा' है। इसकी विमर्श-पद्धति श्रन्वय व्यतिरेकपूर्वक होती है। ज्ञात वस्तु के प्रतिकूल तथ्यों का निरसन और अनुकूल तथ्यो का संकलन कर यह उसके स्वरूप निर्णय की परम्परा को आगे बढ़ाता है
ईहा से पहले संशय होता है पर वे दोनो एक नही हैं। ( सशय कोरा विकल्प खड़ा कर देता है किन्तु समाधान नहीं करता। ईहा संशय के द्वारा खड़े किये हुए विकल्पो को पृथक् करती है । संशय समाधायक नहीं होता, 1 इसीलिए उसे ज्ञानक्रम में नहीं रखा जाता । श्रवग्रह मे अर्थ के सामान्य रूप का ग्रहण होता है और ईहा में उसके विशेष धर्मों ( स्वरूप, नाम जाति आदि ) का पर्यालोचन शुरू हो जाता है ।
(3) अवाय
ईंहा के द्वारा ज्ञात सत्-अर्थ का निर्णय होता है, जैसे- 'यह शब्द ही है, स्पर्श, नहीं है उसका नाम 'वाय' है । यह ईहा के पर्यालोचन का समर्थन ही नहीं करता, किन्तु उसका विशेष अवधानपूर्वक निर्णय भी कर डालता है।
धारणा
अवाय द्वारा किया गया निर्णय कुछ समय के लिए टिकता है और मन के विषयान्तरित होते ही वह चला जाता है । पीछे अपना संस्कार छोड़ जाता है । वह स्मृति का हेतु होता है।