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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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३६-(क) अव्यक्तबोधसशयाऽसर्वार्थग्रहणानि चावरणशीलनानावरगकर्म
सद्भावादभ्युपेयानि। -त० मा० टी० रा पृ० १५१ (ख) आवारकत्वस्वभाव ज्ञानावरण कर्मसदभावेनाव्यक्तबोधसंशयोदभावा
शेष विषयाग्रहणान्यायविरूद्धानि...| न्या० पत्र १७७ । ३७-साची सरधा भाखी जगनाथ, ते ऊधो सरध्या आवै मिथ्यात । और ऊंधो सरधनी आवै, तो झूठ लागै पिण सरधा न जावै।
-इ० चौ० ७-६। ३८-प्रज्ञा० २३ ३६-अनु० १२६ । ४०-धर्म में अधर्म-संज्ञा, अधर्म में धर्म-सज्ञा आदि।-भग० जोड़ १४।२। ४१-अशानी केइ बोल ऊधा श्रध्या ते मिथ्यात्व आश्रव छै। ते मोह कर्म
ना उदय थी नीपनो है, माटे ते अज्ञान नथी, केमके अज्ञानी जेट लो शुद्ध जाणै ते ज्ञानावरणीय नां क्षयोपशम थी नीपनो छै। माटे ते भाजन आसरी अज्ञान छै। अज्ञान ने अंधी श्रद्धा बन्ने जुदा है।
-भग जोड़ ८-२॥ ४२-(क)-० २५ (ख)-मिथ्यात्विना ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्योऽपि बोधो मिथ्यात्व
सहचारित्वात् अज्ञानं भवति...। -जैन० दी० २२२१ वृत्ति (ग) माजन लारे जाण रे, ज्ञान अज्ञान कहीजिए। समदृष्टि रे ज्ञान रे, अज्ञान अज्ञानी तणो ॥
-भग जोड़ मारा५५ । ४३-कुत्सितं ज्ञानमशान, कुत्सार्थस्य ननोऽन्वयात् । कुत्सितत्वतु मिथ्यात्वयोगात् तत् त्रिविध पुनः
लो० प्र. (द्रव्यलोक ) श्लोक ६६ ४-ज्ञा० वि० ४०४१ ४५-(क) स्था० २।४।
(ख) नाण मोह चाल्यो सूत्तर ममै, ते ज्ञान में उपजै व्यामोह । ते शानावरणी रा उदा थकी, ते मोह निश्चै नहीं होय ॥
ज्ञान, कुत्सायन त्रिविध
श्लोक ६