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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[८५ और शरीर की प्रवृत्ति ) इन पांच आस्रवो के द्वारा विजातीय-तत्त्व का आकर्षण करता है । यह जीव अपने हाथो ही अपने वन्धन का जाल बुनता है। नव तक प्रास्त्रव का संवरण नही होता, तब तक विजातीय तत्त्व का प्रवेश-द्वार खुला ही रहता है।
भगवान् ने दो प्रकार का धर्म कहा है-संवर और तपस्या-निर्जरा | संवर के द्वारा नये विजातीय द्रव्य के संग्रह का निरोध होता है और तपस्या के द्वारा पूर्व-संचित-संग्रह का विलय होता है। जो व्यक्ति विजातीय द्रव्य का नये सिरे से संग्रह नही करता और पुराने संग्रह को नष्ट कर डालता है, वह उससे मुक्त हो जाता है१९ । साधना का मान-दण्ड ___भगवान् ने कहा-गौतम ! साधना के क्षेत्र में व्यक्ति के अपकर्ष-उत्कर्ष या अवरोह-आरोह का मान-दण्ड संवर (विजातीय तत्त्व का निरोध ) है । ___ संयम और आत्म-स्वरूप की पूर्ण अभिव्यक्ति का चरम बिन्दु एक है। पूर्ण संयम यानी असंयम का पूर्ण अन्त, असंयम का पूर्ण अन्त यानी आत्मा का पूर्ण विकास।
जो व्यक्ति भोग-तृष्णा का अन्तकर है, वही इस अनादि दुःख का अन्तकर है२० ।
दुःख के आवर्त में दुःखी ही फंसता है, अदुःखी नहीं २१॥
उस्तरा और चक्र अन्त-भाग से चलते हैं। जो अन्त भाग से चलते हैं, वे ही साध्य को पा सकते हैं।
विषय, कषाय और तृष्णा की अन्तरेखा के उस पार जिनका पहला चरण टिकता है, वे ही अन्तकर-मुक्त बनते हैं२२ । महाव्रत और अणुव्रत
'अहिंसा ही धर्म है, यह कहना न तो अत्युक्ति है और न अर्थवाद । प्राचार्यों ने बताया है कि "सत्य आदि जितने व्रत हैं, वे सब अहिंसा की सुरक्षा के लिए हैं २३ ।” काव्य की भाषा में "अहिंसा धान है, सत्य आदि उसकी रक्षा करने वाली वाड़े है २४" "अहिंसा जल है, सत्य आदि उसकी रक्षा के लिए सेतु है२५ ।” सार यही है कि दूसरे सभी व्रत अहिंसा के ही महलू हैं।