________________
। ७७
जैन दर्शन में आचार मीमांसा लिए है। अहिसा ही धर्म है। शेप महाव्रत उसकी सुरक्षा के लिए हैं। यह विचार उत्तरवर्ती संस्कृत साहित्य में बहुत दृढ़ता से निरूपित हुआ है।
धर्म का मौलिक रूप सामायिक-चारित्र या समता का आचरण है। अहिंसा, सत्य आदि उसी की साधना के प्रकार हैं। समता का अखंड रूप एक अहिंसा महाव्रत मे भी समा जाता है और भेद-दृष्टि से चले तो उसके पाँच और अधिक भेद किये जा सकते हैं। अप्रमाद ___ यह सातवी भूमिका है। छठी भूमिका का अधिकारी प्रमत्त होता हैउसके प्रमाद की सत्ता भी होती है और वह कहीं-कही हिसा भी कर लेता है। सातवीं का अधिकारी प्रमादी नहीं होता, सावद्य प्रवृत्ति नहीं करता। इसलिए अप्रत्त-संयती को अनारम्भ-अहिंसक और प्रमत्त-संयती को शुभ-योग की अपेक्षा अनारम्भ और अशुभ-योग की अपेक्षा आत्मारम्भ (आत्म-हिंसक) परारम्भ (पर-हिंसक ) और उभयारम्भ ( उभय-हिंसक ) कहा है। श्रेणी-आरोह और अकषाय या वीतराग-भाव __ आठवी भूमिका का प्रारम्भ अपूर्व-करण से होता है। पहले कभी न अाया हो, वैमा विशुद्ध भाव आता है, अात्मा 'गुण-श्रेणी' का अारोह करने लगता है। प्रारोह की श्रेणियां दो हैं-उपशम और क्षपक। मोह को उपशान्त कर आगे बढ़ने वाला ग्यारहवीं भूमिका मे पहुंच मोह को सर्वथा उपशान्त कर वीतराग बन जाता है। उपशम स्वल्पकालीन होता है, इसलिए मोह के उभरने पर बह वापस नीचे की भूमिकात्री में आ जाता है। मोह को खपाकर आगे बढ़ने वाला बारहवी भूमिका में पहुंच वीतराग बन जाता है । क्षीण मोह का अवरोह नही होता । केवली या सर्वज्ञ
तेरहवीं भूमिका सर्व-ज्ञान और सर्व-दर्शन की है। भगवान् ने कहा-कर्म का मूल मोह है। सेनानी के भाग जाने पर सेना भाग जाती है, वैसे ही मोह के नष्ट होने पर शेष कर्म नष्ट हो जाते हैं । मोह के नष्ट होते ही ज्ञान और , दर्शन के आवरण तथा अन्तराय-ये तीनो कर्म-वन्धन टूट जाते हैं। आत्मा