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जैन दर्शन में आचार मीमांसा निष्ठ ही स्वीकार करता है, इसीलिए प्राचार्य कुन्दकुन्द ने बाह्य साधना-शील
आत्मा को पर-समयरत कहा है ७७ । ___औपचारिक कर्तृ त्व-भोक्तृत्व को परनिष्ठ मानने के लिए वह अनुदार भी नही है। इसीलिए-'सिद्ध मुझे सिद्धि दे'-ऐसी प्रार्थनाएँ की जाती है७८ ।
प्राणीमात्र के प्रति, केवल मानव के प्रति ही नहीं, आत्म-तुल्य दृष्टि और किसी को भी कष्ट न देने की बृत्ति आध्यात्मिक संवेदनशीलता और सौभ्रात्र है। इसी में से प्राणी की असीमता का विकास होता है।