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जैन दर्शन में आचार मीमांसा शरीर-मुक्ति, बन्धन,-मुक्ति, क्रिया-मुक्ति। क्रिया से बन्धन, बन्धन से शरीर
और शरीर से संसार-यह परम्परा है। मुक्त जीव अशरीर, अबन्ध और अक्रिय होते हैं। अक्रियावाद की स्थापना के बाद क्रियावाद के अन्वेपण की प्रवृत्ति बढ़ी। क्रियावाद की खोज में से 'अहिसा' का चरम विकास हुआ।
अक्रियावाद की स्थापना से पहले अक्रिया का अर्थ था विश्राम या कार्यनिवृत्ति । थका हुआ व्यक्ति थकान मिटाने के लिए नही सोचता, नही बोलता
और गमनागमनादि नहीं करता उसीका नाम था 'अक्रियां'। किन्तु चित्तवृत्ति निरोध, मौन और कायोत्सर्ग-एतद्प अक्रिया किसी महत्त्वपूर्ण साध्य की सिद्धि के लिए है-यह अनुभवगम्य नही हुआ था।
'कर्म से कर्म का क्षय नहीं होता, अकर्म से कर्म का क्षय होता है ४३। ज्यो ही यह कर्म-निवृत्ति का घोष प्रवल हुआ, त्यो ही व्यवहार-मार्ग का द्वन्द्व छिड़ गया। कर्म जीवन के इस छोर से उस छोर तक लगा रहता है। उसे करने वाले मुक्त नहीं बनते। उसे नहीं करने वाले जीवन-धारण भी नहीं कर सकते, समाज और राष्ट्र के धारण की बात तो दूर रही।
इस विचार-संघर्ष से कर्म (प्रवृत्ति ) शोधन की दृष्टि मिली । अक्रियात्मक साध्य (मोक्ष) अक्रिया के द्वारा ही प्राप्य है। आत्मा का अभियान प्रक्रिया की ओर होता है, तब साध्य दूर नही रहता। इस अभियान में कर्म रहता है पर वह अक्रिया से परिष्कृत बना हुआ रहता है। प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म ४४। प्रमत्त का कर्म बाल-वीर्य होता है और अप्रमत्त का कर्म पंडित-वीर्य होता है। पंडित-वीर्य असत् क्रिया रहित होता है, इसलिए वह प्रवृत्ति रूप होते हुए भी निवृत्ति रूप अकर्म है-मोक्ष का साधन है।
"शस्त्र-शिक्षा, जीव-वध, माया, काम-भोग, असंयम, बैर, राग और द्वेष-ये सकर्म-वीर्य हैं। वाल व्यक्ति इनसे घिरा रहता है४५ ।”
'पाप का प्रत्याख्यान, इन्द्रिय-संगोपन, शरीर-संयम, वाणी-संयम, मानमाया परिहार, ऋद्धि, रस और सुख के गौरव का त्याग, उपशम, अहिसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, ध्यान-योग और काय-व्युत्सर्ग-ये अकर्म-वीर्य हैं। पंडित इनके द्वारा मोक्ष का परिव्राजक बनता है।"