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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
आत्मा का परिमित स्वरूपोदय होता है । पूर्ण संवर और पूर्ण निर्जरा होते ही आत्मा का पूर्णोदय हो जाता है - मोक्ष हो जाता है
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गूढ़वाद
आत्मा की तीन अवस्थाएं होती हैं :
(१) वहिर् - आत्मा (२) अन्तर् - आत्मा ( ३ ) परमात्मा ।
जिसे अपने आप का भान नहीं, वही बाहिर आत्मा है । अपने स्वरूप को पहचानने वाला अन्तर आत्मा है । जिसका स्वरूप अनावृत हो गया, वह परमात्मा है । आत्मा परमात्मा बने, शुद्ध रूप प्रगट हो, उसके लिए जिस पद्धति का अवलम्बन लिया जाता है, वही 'गूढ़वाद' है ।
परमात्म-रूप का साक्षात्कार मन की निर्विकार- स्थिति से होता है, इस लिए वही गूढ़वाद है । मन के निर्विकार होने की प्रक्रिया स्पष्ट नहीं, सरल नहीं। सहजतया उसका ज्ञान होना कठिन है । ज्ञान होने पर भी श्रद्धा होना कठिन है। श्रद्धा होने पर भी उसका क्रियात्मक व्यवहार कठिन है । इसी लिए श्रात्म-शोधन की प्रणाली 'गूढ़' कहलाती है ।
श्रात्म-विकास के पाँच सूत्र हैं
पहला सूत्र है - अपनी पूर्णता और स्वतंत्रता का स्वतंत्र हॅू, जो परमात्मा है, वह मैं हूँ और जो मैं हूँ वही दूसरा सूत्र है -- चेतन - पुद्गल विवेक — मैं भिन्न हूँ, मैं चेतन हूँ, वह चेतन है 39 |
तीसरा सूत्र है- आनन्द बाहर से नही आता । मैं श्रानन्द का अक्षयकोष पुद्गल-पदार्थ के संयोग से जो सुखानुभूति होती है, वह ताकि है । मौलिक आनन्द को दबा व्यामोह उत्पन्न करती है ।
चौथा सूत्र है - पुद्गल विरक्ति या संसार के प्रति उदासीनता । पुद्गल से पुद्गल को तृप्ति मिलती है, मुझे नहीं । पर तृप्ति में स्व का जो आरोप है, वह उचित नही ४०
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जो पुद्गल - वियोग आत्मा के लिए उपकारी है, वह देह के लिए अपकारी है और जो पुद्गल-संयोग देह के लिए उपकारी है, वह आत्मा के लिए अपकारी है ४ १ 1
अनुभव — मैं पूर्ण हूँ,
परमात्मा है ३८
शरीर भिन्न है,
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