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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
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श्रात्मा की अनुबुद्ध - दशा में कर्म - वर्गणाएं इन आत्म-शक्तियो को दवाए
रहती हैं — इन्हें पूर्ण विकसित नही होने देती । भव- स्थिति पकने पर कर्मवर्गणाए घिसती - घिसती वलहीन हो जाती हैं । तव आत्मा में कुछ सहज बुद्धि जागती है । यहीं से आत्म-विकास का क्रम शुरू होता है । तव से दृष्टि यथार्थ वनती है, सम्यक्त्व प्राप्त होता है । यह आत्म जागरण का पहिला सोपान है । इसमें आत्मा अपने रूप को 'स्व' और वाह्य वस्तुओ को 'पर' जान ही नहीं लेती किन्तु उसकी सहज श्रद्धा भी वैसी ही बन जाती है । इसीलिए इस दशा वाली आत्मा को अन्तर् आत्मा, सम्यग् दृष्टि या सम्यक्त्वी कहते हैं। इससे पहिले की दशा में वह वहिर् आत्मा मिथ्या दृष्टि या मिथ्यात्वी कहलाती है ।
इस जागरण के बाद ग्रात्मा अपनी मुक्ति के लिए आगे बढ़ती है । सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान के सहारे वह सम्यक् चारित्र का वल बढ़ाती है । ज्योज्यो चरित्र का वल बढ़ता है त्यों-त्यो कर्म-वर्गणाओं का आकर्षण कम होता जाता है । सत् प्रवृत्ति या अहिंसात्मक प्रवृत्ति से पहले बन्धी कर्मवर्गणाए शिथिल हो जाती हैं । चलते-चलते ऐसी विशुद्धि बढ़ती है कि श्रात्मा शरीर-दशा में भी निरावरण बन जाती है। ज्ञान, दर्शन, वीतराग-भाव और शक्ति का पूर्ण या वाधा - हीन या वाह्य वस्तुओं से प्रभावित विकास हो जाता है । इस दशा में भव या शेप आयुष्य को टिकाए रखने वाली चार वर्गणाएं – भवोपग्राही वर्गणाएं बाकी रहती हैं । जीवन के अन्त में ये भी टूट जाती हैं । आत्मा पूर्ण मुक्त या बाहरी प्रभावों से सर्वथा रहित हो जाती है 1 वन्धन मुक्त तुम्बा जैसे पानी पर तैरने लग जाता है वैसे ही बन्धन-मुक्त आत्मा लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाती है । मुक्त आत्मा में वैभाविक परिवर्तन नहीं होता, स्वाभाविक परिवर्तन अवश्य होता है । वह वस्तुमात्र का अवश्यम्भावी धर्म है ।
ज्ञान और प्रत्याख्यान
भगवान् ने कहा- पुरुष ! तू सत्य की आराधना कर । सत्य की आराधना करने वाला मौत को तर जाता है । जो मौत से परे (अमृत ) है श्रेय है |