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जैन दर्शन में आचार मीमांसा से कार्मण वर्गणाओ से आवेष्टित हैं। प्राणी का निम्नतम विकसित रूप निगोद' है २५। निगोद अनादि-वनस्पति है। उसके एक-एक शरीर में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। यह जीवो का अक्षय कोष है और सबका मूल स्थान है। निगोद के जीव एकेन्द्रिय होते हैं। जो जीव निगोद को छोड़ दूसरी काय में नहीं गए वे 'अव्यवहार-राशि' कहलाते हैं और निगोद से बाहर निकले जीव 'व्यवहार-राशि' २७ । अव्यवहार-राशि का तात्पर्य यह है कि उन जीवो ने अनादि-वनस्पति के सिवाय और कोई व्यवहार नहीं पाया। स्त्यानद्धि-निद्रा-घोरतम निद्रा के उदय से ये जीव अव्यक्त-चेतना ( जघन्यतम चैतन्य शक्ति) वाले होते हैं। इनमें विकास की कोई प्रवृत्ति नहीं होती। अव्यवहार-राशि से बाहर निकलकर प्राणी विकास की योग्यता को अनुकूल सामग्री पा अभिव्यक्त करता है। विकास की अन्तिम स्थिति है शरीर का अत्यन्त वियोग या आत्मा की बन्धन-मुक्तदशा २८। यह प्रयत्नसाध्य है । निगोदीय जघन्यता स्वभाव सिद्ध है।
स्थूल शरीर मृत्यु से छूट जाता है पर सूक्ष्म शरीर नही छूटते। इसलिए फिर प्राणी को स्थूल-शरीर बनाना पड़ता है। किन्तु जब स्थूल और सूक्ष्म दोनो प्रकार के शरीर छूट जाते हैं तब फिर शरीर नही बनता। - आत्मा की अविकसित दशा में उस पर कषाय का लेप रहता है२९ । इससे उसमें स्व-पर की मिथ्या कल्पना बनती है। स्व में पर की दृष्टि और पर में स्व की दृष्टि का नाम है मिथ्या-दृष्टि । पुद्गल पर है, विजातीय है, बाह्य है। उसमें स्व की भावना, आसक्ति या अनुराग पैदा होता है अथवा घृणा की भावना बनती है। ये दोनो आत्मा के आवेग या प्रकम्पन हैं अथवा प्रत्येक प्रवृत्ति अात्मा में कम्पन पैदा करती है। इनसे कार्मण वर्गणाएं संगठित हो अात्मा के साथ चिपक जाती हैं। आत्मा को हर समय अनन्त-अनन्त कर्म-वर्गणाएं आवेष्टित किये रहती हैं। नई कर्म-वर्गणाएं पहले की कर्मवर्गणाओ से रासायनिक क्रिया द्वारा घुल-मिल होकर एकमेक बनजाती हैं । सब कर्म-वर्गणाओ की योग्यता समान नही होती। कई चिकनी होती है, कई रूखी-तीव्र रस और मंद रस । इसलिए कई छूकर रह जाती हैं, कई गाढ़ बन्धन में बंध जाती हैं। कर्म-वर्गणाएं बनते ही अपना प्रभाव नहीं डालती