________________
४०]
जैन दर्शन में आचार मीमांसा
निरूपण के हो जाते हैं। संक्षेप में वस्तु के दो रूप हैं—आज्ञा गम्य और हेतु-गम्य । श्राज्ञा-गम्य पदार्थ को आज्ञा - सिद्ध कहा जाए और हेतु-गम्य पदार्थ को हेतु - सिद्ध, यह कथन - विधि की आराधना है । पदार्थ मात्र को आज्ञा- सिद्ध्या हेतु सिद्ध कहा जाए, यह कथन - विधि की विराधना है १ ।
9
सफल प्ररूपक वही होता है जो हेतु के पक्ष में हेतुवादी और आगम के पक्ष में आगम-वादी रहे 1
ज्ञान का फल चारित्र है या यो कहिए कि ज्ञान चारित्र के लिए है । मूल वस्तु सम्यग् दर्शन है जो सम्यग् दर्शनी नही, वह ज्ञानी नही होता । ज्ञान के बिना चरण गुण नहीं आते । अगुणी को मोक्ष नहीं मिलता मोक्ष के बिना निर्वाण ( स्वरूप-लाभ या आत्यन्तिक शान्ति ) नही होतीं ।
वह ज्ञान मिथ्या है, जो क्रिया या आचरण के लिए न हो । वह तर्क शुष्क है, जो अभिनिवेश के लिए आये । चारित्र से पहले ज्ञान का जो स्थान है, वह चारित्र की विशुद्धि के लिए ही है ।
I
क्रियावाद का निरूपण वही कर सकता है, जो आत्मा को जानता है, लोक को जानता है, गति श्रागति को जानता है, शाश्वत और शाश्वत को जानता है, जन्म-मृत्यु को जानता है । आस्रव और संवर को जानता है, दुःख और निर्जरा को जानता है ४ ।
/
क्रियावाद शब्द आत्म दृष्टि का प्रतीक है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप है I वह संसार दशा में आवृत रहता है । उसकी शुद्धि के लिए क्रिया या चारित्र है । चारित्र साधन है, साध्य है, श्रात्म-स्वरूप का प्रादुर्भाव । साध्य की दृष्टि से ज्ञान का स्थान पहला है और चारित्र का दूसरा । साधन की दृष्टि से चारित्र का स्थान पहला है और ज्ञान का दूसरा । जव शुद्धि की प्रक्रिया चलती है, तब साधन की अपेक्षा प्रमुख रहती है। योग से पहले चरण करणानुयोग की योजना हुई है । दर्शन
यही कारण है --- द्रव्यानु
धम मूलक दर्शन का विचार चार प्रश्नो पर चलता है । (१) बन्ध
(२) बन्ध - हेतु ( सव )