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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
उपकारक 'काल' नामक तत्त्व है । जो मूर्त है वह 'पुद्गल' द्रव्य है । जिसमें चैतन्य है वह जीव हैं । इनकी क्रिया या उपकारो की जो समष्टि है वह जगत् है । यह भी उपयोगितावाद है ।
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पदार्थों के अस्तित्व के बारे में विचार करना अस्तित्ववाद या वास्तविक - वाद कहलाता है । अस्तित्व की दृष्टि से पदार्थ दो हैं--चेतन
और
चेतन ।
अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद
जैन - परिभाषा में दोनो के लिए एक शब्द है 'द्रव्यानुयोग' | पदार्थ के अस्तित्व और उपयोग पर विचार करने वाला समूचा सिद्धान्त इसमें समा जाता है ।
उपयोगिता के दो रूप हैं - आध्यात्मिक और जागतिक । नव तत्त्व की व्यवस्था आत्म-कल्याण के लक्ष्य से की हुई है, इसलिए यह आध्यात्मिक है । यह आत्म-मुक्ति के साधक, वाधक तत्वो का विचार है । कर्मबद्ध आत्मा को जीव और कर्म - मुक्त आत्मा को मोक्ष कहते हैं । मोक्ष साध्य है । जीव के वहाँ तक पहुँचने में पुण्य, पाप, वन्ध और आसव -- ये चार तत्त्व वाधक हैं, संवर और निर्जरा- ये दो साधक हैं । अजीव उसका प्रतिपक्षी तत्त्व है ।
षड्द्रव्य की व्यवस्था विश्व के सहज-संचलन या सहज - नियम की दृष्टि से हुई है । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के लिए क्या उपयोग है, यह जानकारी हमें इससे मिलती है ।
वास्तविकतावाद में पदार्थ के उपयोग पर कोई विचार नही होता । सिर्फ उसके अस्तित्व पर ही विचार होता है, इसलिए वह 'पदार्थवाद' या 'आधिभौतिकवाद' कहलाता है
दर्शन का विकास अस्तित्व और उपयोग दोनो के आधार पर हुआ है । अस्तित्व और उपयोग दोनों प्रमाण द्वारा साधे गए हैं। इसलिए प्रमाण, न्याय या तर्क के विकास के आधार भी यही दोनो हैं । पदार्थ दो प्रकार के होते हैंतर्क्स - हेतु गम्य और तर्क्स -- हेतु - अगम्य । न्यायशास्त्र का मुख्य विषय है-प्रमाण - मीमांसा । तर्क शास्त्र इससे भिन्न नहीं है । वह ज्ञान - विवेचन का ही