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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[७ दर्शन-बुद्ध के लिए माधना, साधक और सिद्ध से बढ़कर कोई सत्य नहीं होता 31 इमलिए वह उन्ही को 'मंगल' लोकोत्तम मानता है और उन्ही की शरण स्वीकार करता है। यह व्यक्ति की प्रास्था या व्यक्तिवाद नहीं, किन्तु गुणवाद है। आचार और अतिचार
सम्बग दर्शन में पोप लाने वाली प्रवृत्ति उनका आचार और दोप लाने वाली प्रवृत्ति उनका अतिचार होती है। ये व्यावहारिक निमित्त हैं, सम्यग दर्शन का स्वरूप नहीं है।
नम्यग दर्शन के प्राचार आठ हैं:(१) निःशंक्ति...... सत्य में निश्चित विश्वाम । (२) निकाक्षित..... मिथ्या विचार के स्वीकार की अरुचि । (३) निर्विचिकित्सा......सत्याचगण के फल में विश्वाम । (४) अमूद-दृष्टि.........अमत्य और अगत्याचरण की महिमा के प्रति
अनाकर्षण, अव्यामोह । (५) उपवृहण.........यात्म-गुण की वृद्धि । (६) स्थिरीकरण ....... सत्य से डगमगा जाए, उन्हें फिर से सत्य में
स्थापित करना। (७) वात्सल्य ............सत्य धर्मों के प्रति सम्मान-भावना, सत्याचरण
का सहयोग। (८)प्रभावना.........::प्रभावकढंग से मत्य के महात्म्य का प्रकाशन । पांच अतिचार
(१) शंका...सत्य में संदेह । (२) कासा...मिथ्याचार के स्वीकार की अभिलापा । (३) विचिकित्सा...सत्याचरण की फल-प्राप्ति में संदेह । (४) परपाखण्ड-प्रशंसा...इतर सम्प्रदाय की प्रशंसा । (५) परपापण्ड संस्तव...इतर सम्प्रदाय का परिचय ।