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जैन दर्शन में आचार मीमांसा [२५ परमाणुओं का पुञ्ज होता ही नहीं। यह क्षपक ( उनको खपाने वाला-नष्ट करने वाला) होता है।
(२) मिथ्या दर्शनी एक पुजी होता है। दर्शन-मोह के परमाणु उसे मघन स्प में प्रभावित किये रहते हैं।
(३) सम्यग् मिथ्या दर्शनी द्विपुजी होता है । दर्शन-मोह के परमाणुओ का शोधन करने चल पड़ता है। किन्तु पूग नहीं कर पाता, यह उस समय की दशा है।
(४) क्षायोपशामिक-सम्यक दरांनी त्रिपुंजी होता है। प्रकारान्तर से मिथ्यात्व मोह के परमाणु क्षीण नहीं होते, उनी दशा में सम्यग् दृष्टि (क्षायोपशमिक सम्यग् दृष्टि) त्रिपुञ्जी होता है। मिथ्यात्व पुञ्ज के क्षीण होने पर वह हिपुजी, मिश्र पुञ्ज के क्षीण होने पर एक पुञ्जी और सम्यक्त्व-पुञ्ज के क्षीण होने पर अपुजी ( क्षायिक मम्यग दृष्टि ) बन जाता है। मिश्र-पुञ्ज संक्रम
दर्शन-मोह के परमाणुनी का पुजीकरण, उनका उदय और संक्रमण परिणाम-धारा की अशुद्धि, अशुद्धि-अल्पता और शुद्धि पर निर्भर है।
परिणाम शुद्ध होते हैं मोह का दबाव ढीला पड़ जाता है । तब शुद्ध पुञ्ज का उदय रहता है। परिणाम कुछ शुद्ध होते हैं ( मोह का दबाव कुछ ढीला पड़ता है ) तब अर्ध-शुद्ध पुञ का उदय रहता है। परिणाम अशुद्ध होते हैं (मोह का दबाव तीत्र होता है ) तव अशुद्ध-पुञ्ज का उदय रहता है ।
मिथ्यात्र परमाणुत्रो की त्रिपुजीकृत अवस्था में जिस पुञ्ज की प्रेरक परिणाम-धारा का प्राबल्य होता है, वह दूसरे को अपने में संक्रान्त कर लेती है। सम्यग् दृष्टि शुद्धि की जागरणोन्मुख परिणाम-धारा के द्वारा मिथ्यात्व पुञ्ज को मिश्र पुज में और जागृत परिणाम-धारा के द्वारा उसे सम्यक्त्व पुञ्ज में संक्रान्त करता है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व पुञ्ज का संक्रमण मिश्र पुञ्ज और सम्यक्त्व पुज दोनो में होता है ।
मिश्र पुज का संक्रमण मिथ्यात्व और सम्यक्त्व-इन दोनो पुञ्जो मे होता है। मिथ्या दृष्टि सम्यक मिथ्यात्व पुञ्ज को मिथ्यात्व पुञ्ज में संक्रान्त करता है। सम्यक्त्वी उमको सम्यक्त्व पुज में संक्रान्त करता है। मिश्र दृष्टि