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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
अन्तर् मुहूर्त के बाद ___ औपशमिक सम्यग् दर्शन अल्पकालीन (अन्तर्मुहूर्त स्थितिक ) होता है । दबा हुआ रोग फिर से उभर आता है। अन्तर् मुहूर्त के लिए निरुद्धोदय किए हुए दर्शन-मोह के परमाणु काल-मर्यादा पूर्ण होते ही फिर सक्रिय वन जाते हैं। थोड़े समय के लिए जो सम्यग् दर्शनी वना, वह फिर मिथ्यादर्शनी बन जाता है। रोग के परमाणुओ को निर्मूल नष्ट करने वाला सदा के लिए स्वस्थ बन जाता है। उनका शोधन करने वाला भी उनसे ग्रस्त नही होता। किन्तु उन्हें दवाये रखने वाला हरदम खतरे में रहता है। औपशमिक सम्यग् दर्शनी इस तीसरी कोटि का होता है। श्रीपशमिक सम्यग् दर्शन के बारे में दो परम्पराएं हैं--(१) सैद्धान्तिक और (२) कर्म-अन्थिक । सिद्धान्त-पक्ष की मान्यता यह है कि क्षायौपशमिक सम्यग् दर्शन पाने वाता व्यक्ति ही अपूर्व करण में दर्शन-मोह के परमाणुत्रो का त्रि-पुञ्जीकरण करता है।
औपशमिक सम्बग् दर्शनी औपशमिक सम्यग् दर्शन से गिरकर मिथ्या दर्शनी होता है।
कर्मग्रन्थ का पक्ष है-अनादिमिथ्या दृष्टि अन्तर-करण में औपशमिकसम्यग् दर्शन या दर्शन-मोह के परमाणुओ को त्रि-पुञ्जीकृत करता है। उस
आन्तर् मौहूर्तिक सम्यग् दर्शन के बाद जो पुञ्ज अधिक प्रभावशाली होता है, वह उसे प्रभावित करता है। (जिस पुञ्ज का उदय होता है, उसी दशा में वह चला जाता है ) अशुद्ध पुञ्ज के प्रभावकाल ( उदय ) में वह मिथ्या दर्शनी, अर्ध-विशुद्ध पुञ्ज के प्रभाव-काल में सम्यग मिथ्या दर्शनी और शुद्ध पुञ्ज के प्रभाव-काल मे सम्यग् दर्शनी बन जाता है ।
सिद्धान्त-पक्ष में पहले क्षायौपशमिक सम्यग् दर्शन प्राप्त होता है ऐसी मान्यता है। कर्म-ग्रन्थ पक्ष में पहले औपशमिक सम्यग् दर्शन प्राप्त होता हैयह माना जाता है।
कई आचार्य दोनो विकल्पो को मान्य करते हैं। कई प्राचार्य क्षायिकसम्यक् -दर्शन भी पहले-पहल प्राप्त होता है-ऐसा मानते हैं । सम्यग् दर्शन का आदि-अनन्त विकल्प इसका आधार है।