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जैन दर्शन में आचार मीमांसा नय : सापेक्ष-दृष्टियाँ १ नैगम-नय
अभेद और भेद सापेक्ष हैं। केवल अभेद ही नहीं है, केवल भेद ही नही है अभेद और भेद सर्वथा स्वतन्त्र ही नही हैं।
यह विश्व अखण्डता से किसी भी रूप में नही जुड़ा हुआ खण्ड और खण्ड से विहीन अखण्ड नही है। यह विश्व यदि अखण्ड ही होता, तो व्यवहार नही होता, उपयोगिता नहीं होती, प्रयोजन नहीं होता। अगर विश्व खण्डात्मक ही होता तो ऐक्य नहीं होता। अस्तित्व की दृष्टि से यह विश्व अखण्ड भी है, प्रयोजन की दृष्टि से यह विश्व खण्ड भी है। २ संग्रह-नय
भेद-सापेक्ष अभेद प्रधान दृष्टिकोण ।
वह यह, यह वह, सब एक हैं, विश्व एक है, अभिन्न है। ३ व्यवहार-नय
वह यह, यह वह, सब भिन्न हैं, विश्व अनेक रूप है, भिन्न है। ४ जु-सूत्र-नव
भूत-भविष्य-सापेक्ष वर्तमान-दृष्टि । जो वीत चुका है, वह अकिञ्चितकर है। जो नही आया, वह भी अकिञ्चितकर है।
कार्यकर वह है, जो वर्तमान है। ५ शब्द-नय--
भूत, भविष्य और वर्तमान के शब्द भी भिन्न-भिन्न हैं और उनके अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं। स्त्री, पुरुष और नपुसंक के वाचक-शब्द भी भिन्न-भिन्न हैं और उनके
अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं। ६ समभिरूढ़-नय
जितने व्युत्पन्न शब्द हैं उतने ही अर्थ हैं-एक शब्द दो वस्तुओं कों अभिव्यक्त नहीं कर सकता।