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जैन दर्शन में आचार मीमांसा साधनो से समृद्ध हैं । समृद्धि का कोई न कोई भाग गभी को मिला है। सामर्थ्य की विभिन्न कक्षाएँ बॅटी हुई है। सब पर किसी एक की प्रभु-गत्ता नहीं है। एक दूसरे में पूर्ण साम्य और वैषम्य भी नहीं है। कुछ माम्य और कुछ वैपम्य से बंचित भी कोई नहीं है। इसलिए कोई किसी को मिटा भी नहीं सकता और मिट भी नहीं सकता। वैषभ्य को ही प्रधान मान नी दारे को मिटाने की मोचता है, यह वैषम्यवादी नीति के एकान्तीकरण झाग अगामजन्य की स्थिति पैदा कर डालता है।
साम्य को ही एकमात्र प्रधान मानना भी माम्यवादी नीति का शान्तिक. आग्रह है। दोनो के ऐकान्तिक बामह के परिणाम-न्यनाकी सान शीत युद्ध का बोलबाला है।
वैपम्प और नाम्प दोनी विरोधी अवश्य पर निरपेक्ष नती हैं। दोनों सापेक्ष हैं और दोनो एक गाम टिन नबने ।
विरोधी युगली के मन-मस्तित्व का प्रतिपादन करने ए भगवान गावीर ने कहा-नित्य-मानिन्य, गामान्य-गामान्य, यास-वाय, गायगा में विरोधी युगल एक गाथ ही गाने हैं। जिग पदार्य में युद्ध गुनी की गामिना है, उसमें कुछ की नास्तिता । या सान्निता गौर नास्तिता एक ही पदार्थ के दो विरोधी किन्तु महा-बन्धित धर्म।
महावस्थान विश्व की विराट व्यगम्या का अंग। याने पदार्माश्रित है, वैसे ही व्यवहाराधिन है। मीनी प्रतिनि भारतीय प्रधानमन्त्री परिदन नेहरू के पंचशील में। मान्यवादी और जनतन्त्री गष्ट एक गाय जी गवने हैं-राजनीति के रंगमंच पर या घोप बलशाली बन रहा है। यह समन्वय के दर्शन का जीवन-व्यवहार में पड़नेवाला प्रतिविम्य ।
वैयक्तिकता, जातीयता, नामाजिकता, प्रान्तीयता और गष्ट्रीयता-ये निरपेक्ष रुप में बढ़ते हैं, तब असामञ्जस्य को लिए ही बढ़ते हैं।
व्यक्ति और सत्ता दोनी भिन्न ही है, यह दोनों के सम्बन्ध की अवहेलना है।
व्यक्ति ही तत्त्व है-यह राज्य की प्रभु-मत्ता का तिरस्कार है। राज्य ही तत्त्व है-यह व्यक्ति की सत्ता का तिरस्कार है। सरकार ही तत्व है-यह