________________
जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[ १४५ ५- ये अपनी-अपनी सीमा में सत्य हैं४९ । ६-दूसरे पक्ष से सापेक्ष हैं तभी नय हैं५ । ७-दूसरे पक्ष की सत्ता में हस्तक्षेप, अवहेलना व अाक्रमण करते हैं तब वे
दुर्नय बन जाते हैं५१ । ८-सव नय परस्पर में विरोधी हैं--पूर्ण साम्य नहीं है किन्तु सापेक्ष हैं,
एकत्व की कड़ी से जुड़े हुए हैं, इसलिए वे अविरोधी सत्य के साधक हैं ५२ । क्या संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माण का यह आधारभूत सत्य नहीं है, जहाँ विरोधी राष्ट्र भी एकत्रित होकर विरोध का
परिहार करने का यत्न करते हैं। ६. एकान्त अविरोध और एकान्त विरोध से पदार्थ-व्यवस्था नहीं होती। व्यवस्था की व्याख्या अविरोध और विरोध की सापेक्षता द्वारा की जा सकती है५३ 1
१०. जितने एकान्तवाद या निरपेक्षवाद हैं, वे सब दोपो से भरे पड़े हैं। ११. ये परस्पर ध्वंसी हैं-एक दूसरे का विनाश करने वाले हैं५४ ।
१२. स्याद्वाद और नयवाद मे अनाक्रमण, अहस्तक्षेप, स्वमर्यादा का अनतिक्रमण, सापेक्षता-ये सामञ्जस्यकारक सिद्धान्त हैं।
इनका व्यावहारिक उपयोग भी असन्तुलन को मिटाने वाला है। साम्प्रदायिक सापेक्षता
धार्मिक क्षेत्र भी सम्प्रदायों की विविधता के कारण असामञ्जस्य की रंगभूमि वना हुआ है। ___समन्वय का पहला प्रयोग वहाँ होना चाहिए। समन्वय का आधार ही अहिंसा है। अहिंसा ही धर्म है। धर्म का ध्वंसक कीटाणु है-साम्प्रदायिक आवेश।
आचार्य श्री तुलसी द्वारा सन् १९५४ में वम्बई में प्रस्तुत साम्प्रदायिक एकता के पांच व्रत इस अभिनिवेश के नियंत्रण का सरल आधार प्रस्तुत करते हैं। वे इस प्रकार हैं :१. मण्डनात्मक नीति वरती जाए। अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया
जाए। दूसरो पर मौखिक या लिखित आक्षेप न किये जाए। ।