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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
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ये गुण विषय है । विषय के सेवन का फल है - संग | संग का फल है— मोह । मोह का फल है - वहिर् - दर्शन ( दृश्य जगत् में आस्था ) | बहिर्-दर्शन का फल है--' बहिर् ज्ञान' ( दृश्य जगत् का ज्ञान ) । ' बहिर् -ज्ञान' का फल है - 'वहिर् -विहार' ( दृश्य जगत् में रमण ) ।
इसकी सार-साधना है दृश्य - जगत् का विकास, उन्नयन और भोग | का सा अनुराग,
सुखाभास में सुख की आस्था, नश्वर के प्रति अनश्वर हित में हित की सी गति, अभक्ष्य में भक्ष्य का सा भाव, की सी प्रेरणा - ये इनके विपाक हैं ।
कर्तव्य में कर्तव्य
विचारणा के प्रौढ़ - काल में मनुष्य ने समझा – जो परिणाम - भद्र, स्थिर और शाश्वत है, वही सार है । इसकी संज्ञा — 'विवेक-दर्शन' है ।
विवेक - दर्शन का फल है - विषय -त्याग ।
विषय -त्याग का फल है -- संग |
असंग का फल है— निर्मोहता । निर्मोहता का फल है — अन्तर- दर्शन । अन्तर्-दर्शन का फल है - अन्तर् - ज्ञान ।
अन्तर्-ज्ञान का फल है — अन्तर् - विहार |
इस रत्न - त्रयी का समन्वित - फल है- - आत्म-स्वरूप की उपलब्धि - मोक्ष या आत्मा का पूर्ण विकास - मुक्ति ।
भगवान् ने कहा- गौतम ! यह आत्मा ( अदृश्य - जगत् ) ही शाश्वत सुखानुभूति का केन्द्र है । वह स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द से अतीत है इसलिए अदृश्य, अपौद्गलिक, अभौतिक है । वह चिन्मय - स्वभाव में उपयुक्त है, इसलिए शाश्वत सुखानुभूति का केन्द्र है' ।
फलित की भाषा में साध्य की दृष्टि से सार है -आत्मा की उपलब्धि और साधन की दृष्टि से सार है-रत्नत्रयी ।
इसीलिए भगवान् ने कहा- गौतम ! धर्म की श्रुति कठिन है, धर्म की श्रद्धा कठिनतर है, धर्म का आचरण कठिनतम है १ ० ।
धर्म-श्रद्धा की संज्ञा 'अन्तर्दृष्टि' है । उसके पाँच लक्षण हैं -- ( १ ) शम